गीता के उपदेश
अच्छाई और बुराइ सर्वथा से ही इस संसार मे रही है। त्रेता युग जिस समय भगवान राम थे उस समय भी उन्हे रावण रूपी बुराई का सामना करना पढ़ा था। अध्यात्म या ईश्वर का मार्ग हमे सदैव यह प्रेरणा देते रहे है की बुराई कही पर भी हो हमे उसका विरोध करना चाहिए। लेकिन याद रखे हर व्यक्ति का अपना एक सामर्थ्य होता है। और हमे उसी अनुरूप कार्य करना चाहिए। आप अपने सामर्थ्य के अनुरूप हर बुराई का विरोध कर सकते है। परंतु सदैव ही अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करे। बुराई कही भी हो सकती है, समाज मे, अपनो मे या अपने आप मे कही भी। कही भी हो परंतु हर जगह आपका यह कर्तव्य बनता है की आप उससे लड़े। डटकर लढ़े। किन्तु कभी आप अपने अहंकार या भावनात्मक लगाव के कारण अपने आप को अच्छाई की राह से ना हटाये और अपने अंदर की बुराई से हार ना जाए। आज देश इस परिस्थिति मे है की उसे हर क्षेत्र मे अर्जुन चाहिए। जो अपने कर्मो को हर स्तर पर पूरी निपुणता से निभाए। आज आप अर्जुन है, आप वो अर्जुन है, जो शिक्षक भी है, इंजीनियर भी है, चिकित्सक भी है और एक मजदूर भी है। आज का हर अर्जुन अपने आप मे एक विधा लिए हुए है। बात समझने भर की है । हर इंसान मे अनेकों अच्छाईया और बुराई होती है। परंतु हमारा सदैव यह प्रयत्न होना चाहिए की हम उन बुराइयों से दूर होते जाये। हमारे पास वो महान ग्रंथ भगवत गीता है जो खुद को पवित्र बनाना सिखाता है। यह सासवत सत्य है की हम जीतने ज्यादा पवित्र होंगे उतना हम अपने अंदर की बुराइयों को हराते जायेंगे।
आज देश बहुत ही विषम परिस्ताथियों से गुजर रहा है। जीवन के हर क्षेत्र मे हमे ना जाने कितने कौरवो और कंस से सामना करना पढ़ रहा है। इनका कुछ न कुछ भाग हमारे अंदर भी है। हम अपने आप मे अर्जुन भी है तो कही ना कही हम मे दुर्योधन भी छुपा है। हमारे अंदर छुपा दुर्योधन आज इस देश के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। क्या किया जाय, अब समय आ गया है की अपने अंदर छुपे इस दुर्योधन को और अपने समाज मे उपस्थित कौरवो की सेना के विरुद्ध खड़ा हुआ जाये, लढा जाये। लढने का अर्थ हिंसा नहीं है। लड़ने से तात्पर्य यह है की ईश्वर की कृपा से जिस भी कर्म का निष्पादन करने आपको मिला है आप उसे पूरी निष्ठा और लगन से करे। जिस प्रकार अर्जुन धनुर्विद्या मे निपुण एक क्षत्रिय थे, तथा भगवान कृष्ण ने उन्हे अपने कर्म को करने कहा उसी प्रकार आप भी अर्जुन है, आप भी किसी ना किसी विधा मे निपुण है, तो आपका भी यह कर्तव्य बनता है की आप उस विधा का प्रयोग भलीभाँति करे। यदि आप एक मजदूर है, एक बाबू है, एक सिपाही है, जो भी है यह आपको ईश्वर द्वारा प्रदत्त कर्म करने का अवसर है। यदि आप इसे नहीं कर पायेंगे तो, आप को इस संसार मे कही ना कही अपयश का सामना करना पढ़ेगा। हमे अपने कर्म को लेकर किसी भी प्रकार से विवश होने की आवश्यकता नहीं है। जब अर्जुन अधर्म के विरुद्ध युद्ध मे भावुक होकर निर्बल होने लगे तो श्रीकृष्ण उनसे कहते है, जो की अध्याय दो के विभिन्न श्लोको मे वर्णित है:
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥३२॥
अध्याय दो के इस श्लोक मे श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है: हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥ यह श्लोक उस समय मे अर्जुन के समक्ष परिस्थितिया को बतलाता है। आज भी वही युद्ध की स्थिति हमारे समक्ष है। आज देश की परिस्थितिया कही ना कही उसी प्रकार है। जिस प्रकार देश की आजादी के लिए हमारे शहीदो को अपनी देश भक्ति दिखाने का मौका मिला वही मौका आज हमे मिला है अपने देश के लिए कुछ करने का। यदि हम अपने समाज मे और अपने मे उत्पन्न इन बुराइयों को मन की विवशता वश दूर नहीं कर पाएंगे तथा जो देश के लिए अपने समाज के लिए कुछ करने का मौका हमे मिला है, इस मौके को खो देंगे तो कभी ना कभी हमे या हमारी आत्मा को इस बात के लिए अपयश का सामना करना पड़ेगा। और इसी संधर्भ मे भगवान कृष्ण अध्याय दो के 2, 3, 31-38 श्लोको मे कहते है
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।२
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥३३॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-र्मरणादतिरिच्यते ॥३४॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥३५॥
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥३६॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥३७॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥३८॥
इन श्लोको का अर्थ हे “अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥ इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥” किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥ तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥ और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥ तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥ या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥ जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥
आज के परिपक्ष्य मे यह बात कितनी प्रयोगिक साबित हो रही है, आप इसे समझे। यदि आज हम अपनी मन की विवशता वश, अपने आप को दुर्बल कर अपने देश के लिए समाज के लिए, अपने आप के लिए कुछ नहीं करेंगे तो हम उस विश्व गुरु कहलाने वाले भारत की उसमे रहने वाले समाज के अपयश मे भागीदारी बनेगे। जो देश कभी सोने की चिड़िया, कभी विश्व गुरु, कहलाता था। जिसे विश्व के पहले विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है, जिसकी वैदिक संस्कृति पर हमे आज भी गर्व है। हम उसकी अपकीर्ति मे क्यो भागीदारी बने, क्यो ना हम अपने देश के लिए अपने समाज के लिए लड़े। और मै बार-बार आपसे कहना चाहूँगा लड़ने का अर्थ हिंसा नहीं है। हमे अपने अंदर छुपे दुर्योधन को पराजित करना है।
आज भी हम नहीं जागे तो हमारे आने वाली संतति, हमारे प्रतिदव्न्दी तक हमारा अपयश जायगा। हमे अपने देश का वो खोया हुआ गौरव फिर से वापस लाना है। हमे अपने आप से जीतना है। अपने मन के अंदर की बुराइयों से जीतना है। हमे जीवन मे ईश्वर द्वारा प्रदत्त हर कार्य, जो भी आप कर रहे है, को पूरी निष्ठा, विवेक तथा बुद्धि के साथ करना है। यदि आप किसी कार्यालय मे पानी भी पीला रहे है। तो हमे उस कार्य को ईश्वर की मर्जी समझकर पूरी निष्ठा और लगन से करना है। यदि हम अपनी दुर्बलता वश उस कार्य को निष्ठा और ज़िम्मेदारी के साथ नहीं करेगे तो हमे अपयश का सामना करना पड़ेगा और वो हम आज देख भी रहे है। परेशानिया आएगी सर्वथा आएगी परंतु उनका अंत भी होगा इसलिए हमे उन्हे सहना है, और अपने समाज के लिए अपने देश के लिए कुछ करना है। हमे अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना है, हमे किसी भी प्रकार से व्याकुल नहीं होना है। चुकी अगर हम अपने कर्म को करने को लेकर ही व्याकुल हो गए, तो हमारी आत्मा को वह सुख नहीं मिल पायगा जिसकी हर श्रेष्ठ पुरुष को चाह होती है। इसी विषय मे भगवान कृष्ण अध्याय २ के १४-१५ श्लोक मे कहते है
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥१४॥
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१५॥
भावार्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥ हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥
आज किसी प्रकार ने अनुचित प्रायजनों से सुविधा अर्जित कर यदि हम अपने वर्तमान के सुख को ही अपना सब कुछ समझ रहे है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल है। यह हमारी बुद्धिहीनता की और अविवेकीपन की निशानी है। इसी विषय मे अध्याय २ के ४२-४४ श्लोके मे भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते है
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥४२॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥४३॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥४४॥
भावार्थ : हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥
याद रखिए आज हमारे देश को आपके सकारात्मक और निष्ठावान कर्म की अत्यधिक जरूरत है। ऐसा जरूरी नहीं है की आप जो अपने देश के लिए अपने आप के सुधार के लिए आज प्रयास करेंगे उसका फल आप को आज ही मिल जाये। याद रखिए गीता मे कहा गया है (अध्याय २ श्लोक ४७ )
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥
भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥
कर्म मे कितनी शक्ति होती है आपको नहीं पता। एक व्यक्ति का कर्म पूरे विश्व को सकारात्मक ऊर्जा दे सकता है नहीं तो उसे नकारात्मक ऊर्जा से बर्बाद भी कर सकता है। कर्म की शक्ति के कुछ उदारन आपको देता हु। थॉमस अल्वा एडीसन ने कर्म किया था एक बल्ब बना कर और उसके कर्म का परिणाम आज भी दुनिया को मिल रहा और वर्षो तक मिलता रहेंगा। अल्बर्ट कलमेटे ने बीसीजी टीके जो टीबी के लिए होता है, का आविष्कार फ्रांस मे किया और जिनके कर्मो का परिणाम आज हमारे लिए वरदान है, और जब तक विश्व रहेगा उनका नाम रहेगा। ना जाने कितने ऐसे आविष्कार है जो हमारे लिए वरदान है। आज हमे भी ऐसे ही कर्म की आवश्यकता है, अपने देश के लिए अपने आप के लिए । जो कर्म वैदिक युग मे हमारे ऋषि मुनियो ने किया था और जिसका आज भी हम गुणगान करते है, वही कर्म आज हमे फिर से करना है। आज हमे ऐसा बनने की जरूरत जिसे सिर्फ हमारा वर्तमान नहीं हमारे आने वाले पचासों पीढ़ियो तक याद रखा जाये।