लेखन की दुनिया में जब भी नायाब लेखकों का नाम लिया जाता है तब प्रेमचंद का नाम शीर्ष पर आता है. 31 जुलाई 1880 को जन्में प्रेमचंद हिंदी साहित्य के सम्राट हैं. उन्होंने करीब डेढ़ दर्जन उपन्यास, और लगभग 300 कहानियां लिखीं. उन्होंने सच्चाई को अपने साहित्य में दर्शाया. साथ ही अपने लेखन के जरिए किसानों, मजदूरों और स्त्रियों के अधिकारों के लिए ऊंचे स्वर में आवाज उठाई.
ब्रिटिशकाल में भीषण गरीबी में बिताए दिन
प्रेमचंद का बचपन का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था. उनके पिता अजायब राय डाकखाने में बतौर मुंशी काम नौकरी करते थे. आर्थिक तंगी में उनका बचपन बीता और आठ साल की उम्र में ही मां को खो दिया था. मां की मौत के बाद पिता ने दूसरा ब्याह कर लिया और सौतेली मां ने कभी उन्हें ममत्व नहीं दिया. ब्रिटिशकाल में ज्यादातर भारतीयों की तरह प्रेमचंद भी भीषण गरीबी में दिन बिता रहे थे.
यह कहावत बहुत प्रसिद्ध और प्रेमचंद के मामले में प्रासंगिक भी है कि पूत के पांव तो पालने में ही दिख जाते हैं. इतनी बदहाली में भी उन्होंने नन्ही सी उम्र से उपन्यास पढ़ना शुरू कर दिया था और इस दौरान साहित्य उनके दिल में घर कर गया था. वैसे तो वह हिन्दू थे, लेकिन पढ़ने की चाह ने पास में मौजूद मदरसे में उर्दू सीखने में कोई संकोच नहीं किया. इस तरह उन्होंने दोनों ही भाषा में महारत हासिल कर ली.
महज 15 साल की उम्र में हो गई थी शादी
महज 15 साल की उम्र में प्रेमचंद की शादी हो गई थी. पत्नी ने कलह और गरीबी के चलते वापस मायके जाकर रहना ही उचित समझा. बताया जाता है कि एक समय ऐसा भी आया जब प्रेमचंद की हालत इतनी खस्ता थी कि घर खर्च के लिए उन्हें कोट और किताबों को बेचना पड़ा था. प्रेमचंद ने 1905 में उन्होंने दूसरी शादी की, इसके बाद उन्हें सरकारी नौकरी भी मिली और यहां काम करते हुए उन्होंने अपना लेखन जारी रहा है.
‘सोज-ए-वतन’ कहानी संग्रह में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के स्वर होने की वजह से सरकार ने इसे जब्त कर लिया. 1921 में गांधी जी के आह्वान पर प्रेमचंद ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए. प्रेमचंद की रचनाओं की बात करें तो इनमें कर्मभूमि, सेवासदन, निर्मला, गोदान और गबन का नाम सबसे ऊपर आता है.
मृत्यु के 86 साल बाद भी मौजूं हैं कहानियां
इसके अलावा, मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, पंच फूल, प्रेम पूर्णिमा, जुर्माना आदि भी शामिल हैं. सन 1936 में महज 56 वर्ष की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन साहित्य की दुनिया में अपने शब्दों के जरिए हमेशा के लिए खुद को जिंदा कर दिया.