त्रावणकोर: वो रियासत जिसका ‘दीवान’ उसे एक अलग देश बनाना चाहता था, भारत में कैसे हुआ विलय?

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भारत की आजादी के साथ ही नए भारत का ताना-बाना बुना जा रहा था. पंडित नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार भारत को दुनिया के सामने एक मजबूत मुल्क बनाने के लिए आगे बढ़ना चाहती थी, तभी देश की एक रियासत का नवाब उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा हो गया. भारत सरकार को उम्मीद थी कि वो भारत के साथ आकर खड़ा होगा, लेकिन उसने पाकिस्तान के साथ जाने का मन बना लिया था.

इस रियासत के रुतबे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 19वीं शताब्दी में इसके राजा को स्थानीय रूप से 21 तोपों की और राज्य से बाहर 19 तोपों की सलामी दी जाती थी. आज भी इस रियासत का जिक्र होता है तो लोग इसकी अमीरी बात करते हैं. आज भी यहां के मंदिर के दानपात्र के ताले खोले जाते हैं तो पैसा ही पैसा नजर आता है.

सोने-चांदी और मुद्रा के अलावा इस अमीर रियासत के पास समुद्री व्यापार की चमक और बेशकीमती ‘मोनाज़ाइट’ का भंडार था जिससे हर कोई अपना बनाना चाहता था. हम ‘त्रावणकोर’ की बात कर रहे हैं, जिसे आजादी के बाद भारत में विलय से इनकार करने वाली रियासतों का अगुआ माना जाता है.

आजादी से पहले आजाद रहने की घोषणा

king-of-travancorePic Credit: wikipedia

जानकारी के मुताबिक, त्रावणकोर पहली रियासत थी, जिसने भारत को आधिकारिक आजादी मिलने से पहले ही घोषणा कर दी थी कि जैसे ही ब्रिटेन भारत की सत्ता छोड़ेगा यह स्वतंत्र हो जाएगी. त्रावणकोर के राजा चिथिरा थिरुनल बलराम वर्मा ने खुद अपनी रियासत की ‘स्वतंत्रता’ की घोषणा की थी. जबकि, इतिहासकार बलराम वर्मा के इस फैसले के पीछे उनके दीवान सीपी रामास्वामी अय्यर को मानते हैं.

जून 1947 में जब भारत के आखिरी वायसरॉय लुईस माउंटबेटन ने भारत की आजादी का मसौदा तैयार किया तो उसमें रियासतों के लिए भी एक कानून था. इसका नाम था ‘लैप्स ऑफ पैरामांउसी’. इसके तहत रियासतों के पास तीन विकल्प थे. पहला वे भारत के साथ जाएं, दूसरा पाकिस्तान के साथ रहें, और तीसरा यह कि वे स्वतंत्र रहे. सीपी को तीसरा पसंद आया और उन्होंने इसके लिए अपने राजा को मना लिया.

त्रावणकोर के राजा चिथिरा थिरुनल बलराम वर्मा के लिए एक बात कही जाती है कि वो सिर्फ नाम के लिए राजा था. उसकी रियासत के लिए अधिकतर फैसले सीपी रामास्वामी अय्यर ही लेते थे. राजा सिर्फ उनके फैसले पर मुंहर लगाते थे. त्रावणकोर को स्वतंत्र रखने के मामले में भी राजा ने ऐसा ही किया. राजा की सहमति के बाद सीपी जमीन पर सक्रिय हो गए और उन्होंने अपनी प्रजा को समझाना शुरू कर दिया.

दीवान सीपी रामास्वामी अय्यर का प्लान

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जानकर बताते हैं कि सीपी त्रावणकोर को स्वतंत्र रखने के लिए खूब मेहनत की. रियासत के हर प्रभावी इंसान के साथ उन्होंने मुलाकात की और समझाया कि त्रावणकोर का स्वतंत्र रहना क्यों जरूरी है. उन्होंने अपने भाषाणों में त्रावणकोर के लोगों की यशकीर्ति के किस्से सुनाए, लेकिन वो जनता का दिल पूरी तरह से जीतने में कामयाब नहीं हुए. बेहत कम संख्या में लोग उनसे सहमत हुए और समर्थन में आगे आए थे.

सीपी को जब इसका एहसास हुआ तो उसने पाकिस्तान से मदद लेने का प्लान तैयार किया और मोहम्मद अली जिन्ना से नजदीकियां बढ़ानी शुरू कर दी. इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक स्वतंत्र राष्ट्र का सपना पूरा करने के लिए उसने मोहम्मद अली जिन्ना को भी अपने साथ मिला लिया था. दरअसल, सीपी को इस बात का डर था कि भारत सरकार उस पर कार्रवाई करते हुए त्रावणकोर पर कब्जा कर सकता है.

भारत को लेकर सीपी की राय सही थी. जैसे ही पंडित नेहरू और सरदार पटेल को पता चला कि सीपी पाकिस्तान के कनेक्शन में है उन्होंने नकेल कसनी शुरू कर दी. परेशान होकर सीपी पाकिस्तान की सह पर 20 जुलाई 1947 को एक ब्रिटिश आला अधिकारी से मिलते हैं और मांग करते हैं त्रावणकोर को स्वतंत्र रहने की मान्यता दे.

भारतीय सेना कार्रवाई के लिए तैयार थी

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सीपी ने यह भी मांग की थी कि अगर भारत सरकार उनकी रियासत पर दवाब बनाने के लिए उनका दाना-पाना बंद करता है तो उसे रोका जाए और त्रावणकोर की मदद की जाए. सीपी को उम्मीद थी कि उसे मदद मिलेगी. क्योंकि अंग्रेजों की नज़र त्रावणकोर में मौजूद कीमती ‘मोनाज़ाइट’ के भंडार पर थी. वो उसे अपना बनाना चाहते थे. सीपी को लग रहा था अंग्रेज इस संपदा के लालच में उनके हित में फैसला सुनाएंगे.

‘मोनाज़ाइट’ इसलिए कीमती था क्योंकि इससे निकलने वाले थोरिएम का प्रयोग परमाणु उर्जा बनाने में किया जा सकता था और खुद को ताकतवर बनाया जा सकता था. अफसोस सीपी अंग्रेजों को मनाने में कामयाब नहीं हुए और माउंटबेटन ने उनकी मांग अस्वीकार कर दी. यह सीपी के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन वो हार मानने को तैयार नहीं था. उसके सिर पर त्रावणकोर को स्वतंत्र बनाने का भूत सवार था.

लेकिन त्रावणकोर की जनता सीपी के मंसूबे समझ गई थी और उसके खिलाफ खड़ी होने थी. जनता का आक्रोश सीपी के खिलाफ उस वक्त बढ़ गया जब पुन्नपरा-वायलार विद्रोह में उसके इशारे पर कई आम लोग मार दिए गए थे. इतिहासकार मानते हैं कि सीपी किसी भी तरह से जनता का विद्रोह कुचल देना चाहता था, लेकिन उसका दांव उल्टा पड़ गया और देखते ही देखते त्रावणकोर में गृहयुद्ध छिड़ गया था.

दीवान पर हमले के बाद भारत में विलय

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जल्दी ही उग्र विद्रोहियों ने सीपी को अपना निशाना बनाया और उस पर जानलेवा हमला कर दिया. कहते हैं, 25 जुलाई को सीपी एक म्यूजिक समारोह में हिस्सा लेने जा रहे थे. इसी दौरान रास्ते में उन पर हमला हो गया. एक विद्रोही युवक ने उन पर एक धारदार हथियार से कई वार किए. सीपी का चेहरा पूरी तरह से बिगड़ गया था. जैसे-तैसे उसकी जान बची गई थी, लेकिन उसे लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था.

मौत के मुंह से वापस आने के बाद सीपी को एहसास हो गया कि वो गलत था. अंतत: उसने अस्पताल से ही 28 जुलाई 1947 को अपने राजा को एक पत्र लिखकर भारत में जुड़ने की इच्छा जाहिर की. सीपी के पत्र मिलने के बाद राजा ने स्थिति को समझा और माउंटबेटन को एक तार भेजा, जिसमें लिखा था त्रावणकोर, भारत में ही विलय करेगा. इस तरह 30 जुलाई 1947 को यह रियासत भारत का आधिकारिक हिस्सा बन गई.