बचपन बेहद अनमोल होता है. ये वो उम्र है जब हम एक खाली मैदान की तरह होते हैं, ऐसा मैदान जहां पर हम अपने मन मुताबिक की इमारतें बनाने के सपने देख सकते हैं, उन सपनों को पूरा करने की ओर कदम बढ़ा सकते हैं. हम वो ज़मीन का टुकड़ा होते हैं जिसे किसी तरह के नुकसान का कोई खतरा नहीं. यही वो उम्र है जो हम खुल कर जी पाते हैं, बिना किसी अफसोस, बिना किसी डर, बिना किसी शर्म के. बच्चे तो हर दौर में बच्चे ही रहते हैं बस उनके बचपन को जीने के तरीके बदल जाते हैं.
90 के दशक में जन्में बच्चों ने वो बचपन जिया है जिसके पास मनोरंजन के लिए दोस्तों का साथ और घर में रखे कुछ सामान के सिवा ज्यादा कुछ खास नहीं होता था. हम आज की तरह आधुनिक उपकरों से घिरे हुए नहीं थे. हमें तब घर में आने वाली उस नई सिलाई मशीन को भी देख कर खुशी होती थी, जिससे हमारा कोई लेना देना नहीं था. हमने पापा के नए स्कूटर से लेकर घर में आए नए स्टैंड फैन तक की खुशी मनाई है.
बचपन की इन खुशियों में कई ऐसे ब्रैंड्स की प्रमुख भूमिका रही है जो अपने-अपने उत्पाद क्षेत्र के लिए सबसे प्रमुख उदाहरण बन गए. आज भी जब हम इन ब्रांड्स का नाम सुनते हैं तो बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं.
तो चलिए जानते हैं उन ब्रांड्स के बारे में जो बचपन में हमारे रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा थे और घर के एक महत्वपूर्ण सदस्य की तरह लगते थे.
1. हमारा बजाज
‘बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर, हमारा बजाज’ ये सिर्फ एक विज्ञापन का जिंगल नहीं बल्कि एक समय में देश का सच था. ये वो समय था जब स्कूटर रखने वाले हर तीसरे शख्स से पास बजाज का चेतक स्कूटर होता था. आज भले ही हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हों जहां हवा में उड़ने वाली बाइक्स के सपने को भी सच करने की तैयारी हो चुकी है, जहां स्कूटर पेट्रोल की बजाए बिजली से चल रहे हैं लेकिन उन दिनों बजाज स्कूटर ही रईसी की निशानी था.
पापा का पहली बार स्कूटर खरीद कर लाना और उसे देखते खुशी से झूम उठना भला हम कैसे भूल सकते हैं. जब पापा के स्कूटर के पीछे बैठ हम स्कूल पहुंचते थे तो ये यात्रा आसमान में उड़ान भरने जैसी लगती थी. बड़े भइया लोग जब बिना स्टैपनी लगा स्कूटर लेकर चलते तो उनका रौब देखने लायक होता था. 1965 में बजाज समूह का कार्यभार संभाने और इसे एक वैश्विक निर्माण कंपनी के रूप में स्थापित करने वाले दिवंगत राहुल बजाज द्वारा घरेलू स्तर पर निर्मित चेतक स्कूटर 80 के दशक में मिडल क्लास का ‘स्टेस्ट्स आयकॉन’ बन गया था.
बजाज केवल स्कूटर के लिए ही नहीं याद किया जाता, बल्कि बजाज ने ‘सनी’ स्कूटी से भारत की युवा लड़कियों को नए पंख दिए. इसके साथ ही ऑटोमोबाइल, घरेलू उपकरण से लेकर जीवन बीमा तक, बजाज समूह की कंपनियां अलग-अलग बाजार में दिखाई दीं.
2. नटराज पेंसिल
“शुरू हुई पेंसिलों की दौड़, और ये देखिए दूसरी पेंसिलों का हाल. जीत की तरफ बढ़ती हुई नटराज पक्की पेंसिल…और नटराज फिर चैंपियन.” पेंसिलों की दौड़ वाला ये विज्ञापन आपको आज भी याद होगा. इसमें सबसे आगे दौड़ रही लाल और काले रंग की धारियों वाली ये नटराज पेंसिल बचपन की सबसे मजबूत यादों में से एक रही है. इस पेंसिल को कोई टक्कर दे पाया तो वो थी अप्सरा पेंसिल. कई घरों में नटराज और अप्सरा में से किसी एक को बेहतर बताने के लिए भाई बहनों के झगड़े आम थे. अधिकतर लड़कियां अप्सरा को बेहतर मानती तो लड़के नटराज को अच्छा बताते. हालांकि ये दोनों पेंसिल हिंदुस्तान पेंसिल्स नामक एक सिक्के के ही दो पहलू थे.
आजादी से पहले देश में विदेशी पेंसिलों का बोलबाला था. आजादी के बाद कुछ स्वदेशी कंपनियों ने पेंसिल बाजार में अपनी जगह बनाने की कोशिश तो की लेकिन अपने खराब उत्पाद के कारण कामयाब ना हो सके. ऐसे समय में अवसर खोजते हुए बीजे सांघवी, रामनाथ मेहरा और मनसूकनी नाम के तीन दोस्तों ने जर्मनी जाकर पेंसिल बिजनेस के बारे में समझा. वहां से लौटने के बाद तीनों ने 1958 में हिंदुस्तान पेंसिल्स नाम की कंपनी शुरू की. कंपनी ने अपने पहले प्रोडक्ट के रूप में नटराज पेंसिल को बाजार में उतारा, जिसने देखते ही देखते छात्रों के बस्ते में अपनी जगह पक्की कर ली.
इसके बाद 1970 में अप्सरा पेंसिल शुरू हुई. शुरुआत में इसका फोकस ड्रॉइंग पेंसिल के तौर पर था. बाद में अप्सरा के नाम से भी वो सारे प्रोडक्ट्स बनने लगे जो नटराज के नाम से बनते थे. नटराज और अप्सरा ने राइटिंग पेंसिल, इरेजर, शार्पनर, स्केल तक सब बनाया. अब तो ये कंपनी वैक्स क्रेयॉन, ऑयल पेस्टल, मैथमेटिकल इंस्ट्रूमेंट, वाटर कलर, बाल प्वॉइंट और जेल पेन तक बना रही है.
3. पड़ोसियों की जलन, आपकी शान- ओनिडा टीवी
एक समय ऐसा भी रहा जब टीवी का मतलब सिर्फ ओनिडा माना जाता था. उस दौरान हर दूसरे घर में हमें ओनिडा टीवी ही देखने को मिलता था. 1981 में जी. एल. मीरचंदानी और विजय मनसुखानी ने मुंबई में ओनिडा की स्थापना की थी. 1982 में, ओनिडा ने अंधेरी, मुंबई में स्थित अपनी फैक्टरी में टेलीविज़न सेट के पुरज़ों को जोड़ने और उनके सज्जीकरण का काम प्रारंभ किया. बाद में ये कंपनी अपने टीवी तैयार करने लगी और देखते ही देखते ये टीवी देश में लोकप्रिय हो गया.
बहुत लोगों को टीवी पर दिखने वाला वो हरे सींग वाला शैतान याद होगा जो ओनिडा के विज्ञापन में आता था. सन 1983 से 1997 ये हरे सींग वाला शैतान बच्चों को डराता रहा. उस समय ओनिडा की टैग लाइन थी ‘नेबर्स एनवी-ऑनर्स प्राइड’. आपके घर में आया पहला टीवी किस कंपनी का था?
4. डाबर च्यवनप्राश
90 के दशक के अधिकतर बच्चों के लिए रात को सोते समय दूध के साथ एक चमच्च च्यवनप्राश खाना एक नियम सा बन गया था. च्यवनप्राश खत्म होने के बाद भी रसोई घर में इसके खाली डिब्बे दिख जाते थे. क्योंकि इनमें डाल, चीनी नामक आदि डाल कर इन डिब्बों को फिर से इस्तेमाल में जो लाया जाता था. आज भले ही तरह तरह के प्रोडक्ट मार्केट में आ गए हों लेकिन उन दिनों च्यवनप्राश ही सबसे बेहतर माना जाता था.
5. पारले-जी
पारले का क्या रुतबा रहा है ये बताने की जरूरत नहीं. अभी भी पारले-जी बिस्कुट बाजार में मिल जाते हैं. उन दिनों पारले जी का एक पैकेट और दूध का एक गिलास बहुत से बच्चों के लिए सुबह का नाश्ता होता था. दूध में गिरने के बाद घुल जाने वाला ये बिस्कुट आज भी सामने आते ही बचपन की याद दिला जाता है.
केवल अमीरों की मेज पर रखे जाने वाले बिस्कुट का स्वाद भारत में हर वर्ग के व्यक्ति को चखाने के लिए चौहान भाइयों ने 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपना पहला बिस्कुट ‘पारले-ग्लूको’ लॉन्च करने की घोषणा कर दी. कहते हैं पारले का ये बिस्कुट एक तरह से अंग्रेजों को दिया गया जवाब था. भारत में उस समय ब्रिटानिया, यूनाइटेड जैसी बिस्कुट विदेशी कंपनियां प्रमुख रूप से बिस्किट बना रही थी.
इनके बिस्कुट इतने महंगे थे कि अमीरों के अलावा यहां तक किसी और वर्ग की पहुंच ही नहीं थी लेकिन पारले बिस्कुट के बाद देश में बिस्कुट अमीरों के लिए न हो कर, आम भारतीयों के लिए हो गया. 1980 में पार्ले-ग्लुको से इसका नाम बदल कर पार्ले-जी कर दिया गया. जिसमें पहले जी का अर्थ ग्लूकोस था लेकिन 2000 में इसका मतलब जीनियस कर दिया गया.
6. लाल दंत मंजन
139 साल पहले एक वैद्य डॉ एस के बर्मन ने अपने छोटे से क्लिनिक से डाबर का सफर शुरू किया और फिर ऐसे ऐसे उत्पाद तैयार किये जो भारत के लगभग हर घर की जान बन गए. आज भले ही बाजार में तरह तरह के टूथ पेस्ट मिल रहे हों लेकिन एक समय था जब अधिकतर लोगों का विश्वास सिर्फ और सिर्फ डाबर के लाल दंत मंजन पर बना हुआ था. इसका लाल रंग का डिब्बा और मुंह को कसैला कर देने वाला तीखा स्वाद आज भी नहीं भूलता. क्या आपने कभी डाबर लाल दंत मंजन का इस्तेमाल किया है?
7. मेलेडी इतनी चॉकलेटी क्यों है
ये ऐसा सवाल है जो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं लेकिन इसका जवाब आजतक नहीं मिला. जेब में कुछ पैसे आने की देर होती थी, उसके बाद तो चॉकलेट पसंद करने वाले बच्चे सीधा दुकान पर मेलेडी चॉकलेट लेने भागते. इसकी पैकिंग भी ऐसी थी जो इसे अन्य टॉफी से अलग बनाती थी. पारले की इस कैंडी ने उस समय के हर बच्चे का दिल जीता था.
8. बोरोलीन
90 के दशक की मम्मियां कई समस्याओं का एक समाधान खोजने में माहिर थीं. आज केवल चेहरे के लिए कई तरह की क्रीम का स्टेमाल होता था लेकिन वो दौर था जब होंठों से लेकर फटी एड़ियों तक के लिए मम्मियों की पहली पसंद बोरोलीन था. बोरोलीन क्रीम उन कुछ चीजों में से एक थी जो हमें घर में हर समय दिख जाती थी.
इसके इतिहास की बात करें तो 1929 में गौर मोहन दत्त की जी.डी.फ़ार्मास्युटिकल्स (G.D Pharmaceuticals Pvt Ltd) ने बोरोलिन का उत्पादन शुरू किया. जल्द ही वो समय आ गया जब G.D Pharmaceuticals Pvt Ltd की स्वदेशी बोरोलिन देशभर के लोगों की पसंदीदा क्रीम बन गई. आज़ादी के पहले के भारत में कश्मीरी इसे फ़्रॉस्टबाइट और रूखी त्वचा से निजात पाने के लिए और दक्षिण भारत के लोग गर्मी से बचने के लिए लगाते थे. बोरोलिन का फ़ॉर्मूला ऐसा था जो हर स्किन टाइप को सूट करता था.
1947 तक ये क्रीम इतनी मशहूर हो गई कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और अभिनेता राजकुमार भी ये क्रीम लगाने लगे थे. 15 अगस्त, 1947 को लोगों के बीच 1 लाख से ज़्यादा मुफ़्त बोरोलिन ट्यूब बांटी गई थी.
9. लाइफ बॉय साबुन
लाइफ बॉय भारत के अधिकतर घरों का एक ऐसा रहा है जो बिना किसी शोर-शराबे के एक कोने में पड़ा रहता. कभी इसे नहाने के लिए इस्टमाल कर लिया जाता तो कभी टॉयलेट से आने के बाद हाथ धोने के लिए. वो चाहे जिस भी रूप में हो लेकिन इस साबुन को देखते हुए और इसका इस्तेमाल करते हुए ही हमारा बचपन बीता है.
रिपोर्ट्स के अनुसार इंग्लैंड की युनिलीवर कंपनी ने 1895 में लाइफ बॉय तैयार किया था. इसके बाद 1933 में जब युनिलीवर भारत आई और हिंदुस्तान युनिलीवर कहलाई तब इस साबुन ने भारत के घरों में प्रवेश करना शुरू किया.
10. एशियन पेंट्स
भले ही बच्चों को पेंट्स की इतनी जानकारी ना हो लेकिन 90 के दशक या उससे पहले के बच्चे एशियन पेंट्स के डब्बों से भली भांति परिचित होंगे. भारत के अधिकतर घरों में घर पेन होने के बाद इन डिब्बों को तरह तरह से इस्तेमाल किया जाता रहा है. ऐसे में ये पेंट्स के डिब्बे हमें जरूर दिख जाते थे. एशिया की सबसे बड़ी कंपनीज़ में से एक मानी जाने वाली एशियन पेंट्स को 1940 में चार दोस्तों ने मिल कर शुरु किया था. आज भी शादी, त्योहार या फिर नये घर के लिये एशियन पेंट्स ही चुनते हैं.
11. लिज्जत पापड़
“शादी, उत्सव या त्योहार, लिज्जत पापड़ हो हर बार… कर्रम, कुर्रम…कुर्रम कर्रम……” बहुत से खरगोश जब ये गाना गाते तो हमारी आंखें उस टीवी स्क्रीन पर टिक जातीं जहां लिज्जत पापड़ का विज्ञापन आ रहा होता. सच पूछिए तो एक उम्र तक यही लगता था कि पापड़ का मतलब ही लिज्जत पापड़ है. हमने अपने घरों में इस पापड़ को इतना देखा है कि कभी ये सोचने का मौका ही नहीं मिला कि लिज्जत एक पापड़ बनाने वाली कंपनी है और ऐसी अन्य कंपनियां भी हैं जो पापड़ तैयार करती हैं.
1959 में मुंबई की रहने वाली जसवंती बेन और उनकी छह सहेलियों ने मिलकर 80 रुपये के उधार से लिज्जत पापड़ बनाने का सफर शुरू किया था. अपने परिवार के खर्च में हाथ बंटाने की सोच के साथ शुरू किया गया ये काम देखते ही देखते एक बड़े कारोबार में बदल गया.