वाराणसी में बेसहारा जानवरों की महीसा बनी सोनम, अपनी पॉकेट मनी से करती है दवा और खाने का प्रबंध

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दुनिया में कई लोग हैं, जो पक्षियों और जानवरों से बेहद प्यार करते हैं. कुत्ते, बिल्ली, गाय जैसे जानवरों को अपने घर-परिवार का बेहद अहम हिस्सा बनाने वालों की सैकड़ों कहानियां आपको मिल जाएंगी. मगर, वाराणसी की सोनम का पशु-पक्षियों से प्यार बेहद निराला है. वो किसी भी जानवर को सड़क पर लाचार नहीं देख सकती. बीते चार सालों में वो एक, दो या फिर दर्जन-भर नहीं, बल्कि 100 से अधिक जानवरों का इलाज करवा चुकी हैं. इंडियाटाइम्स हिन्दी के साथ एक खास बातचीत में सोनम ने अपनी पूरी कहानी शेयर की है:

2018 में शुरू हुआ था सोनम का सफर

SonamPic Credit: Sonam

सोनम अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं, ”वह साल 2018 था, जब पहली बार मैंने एक चोटिल कुत्ते का रेस्क्यू किया था. कुत्ते के पैर से खून बह रहा था, वो परेशान होकर इधर-उधर घूम रहा था. उसे देखकर मैं द्रवित हो गई और फौरन उसे अस्पताल लेकर गई. मेरे पास डॉक्टर की फीस देने तक के पैसे नहीं थे. ऐसे में मैंने अपने घर से मिली स्कूल की फीस खर्च कर दी. घरवालों को जब इस बारे में पता चला कि मैंने स्कूल की फीस कहीं और खर्च कर दी है. तब उन्होंने मुझे खूब डाटा था. हालांकि, बाद में सभी ने मेरे काम की तारीफ की और प्रोत्साहित किया.”

”वो दिन था और आज का दिन है. अब तक मैं 100 से अधिक जानवरों का इलाज करवा चुकी हूं. हालांकि, यह मेरे लिए सिर्फ एक संख्या है. अपने द्वारा रेस्क्यू किए गए हर पशु-पक्षी की दवा से लेकर उसके खाने तक, सबका ख़र्च मैं अपनी पॉकेट मनी से ही करती हूं. हाल ही में मैंने घर-घर पानी पहुंचाने का काम भी शुरू किया है, जिससे मुझे कुछ कमाई हो जाती है. मेरी बस यही कोशिश है कि कोई जानवर सड़क पर न मरे. मैं किसी को मरते नहीं देख सकती.”

अपनी पॉकेट मनी से जानवरों की मदद

SonamPic Credit: Sonam

बातचीत आगे बढ़ाते हुए सोनम कहती हैं, ”लॉकडाउन में जब सबकुछ बंद हो गया था. उस वक्त भी मैंने बेजुबानों की देखभाल करनी बंद नहीं की. मेरे काम को देखकर शहर के कई अन्य युवाओं का मुझे साथ मिला और हम एक टीम की तरह आगे बढ़े. कोरोना काल में हमने कई लावरिश लाशों का अपने पैसे से अंतिम संस्कार भी कराया था. दुर्भाग्य से आज मुझे अपने रास्ते पर आगे बढ़ना पड़ रहा है. क्योंकि, बाकी साथी अब अपने दूसरे कामों में बिजी हो चुके हैं. बीते चार सालों में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए लेकिन मेरे काम करने का तरीका नहीं बदला.”

”आज भी मैं पहले की तरह अपने बैग में बिस्किट, दूध और दवा का डिब्बा साथ लेकर चलती हूं, ताकि समय रहते जरूरतमंद जानवर का इलाज कर सकूं. मुझे खुशी है कि लोग अब मेरे प्रयासों की सराहना करने लगे हैं और मदद की पेशकश करते हैं. मैंने वो वक्त भी देखा जब सब मेरा जमकर मजाक उड़ाते थे. मेरा सभी से कहना है कि अगर आप किसी बेजुबान को अपने घर लेकर आते हैं तो किसी भी स्थिति में उन्हें सड़क पर मरने के लिए ना छोड़े.”

आवारा और छुट्टा जानवरों की मसीहा

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बातचीत की अंत में सोनम बताती हैं कि वो मूलत: झारखंड की रहने वाली हैं. किन्तु, उनका परिवार सालों पहले रोजगार के सिलसिले में  वाराणसी आ गया था और फिर हमेशा के लिए यही बस गया. इसलिए उनका जन्म और शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में ही हुई. उनके पिता घर-घर अखबार पहुंचाकर परिवार चलाते हैं.

पिता के अलावा उनके परिवार में मां, बहन और एक भाई है. सबके सहयोग से वो बेजुबानों की मदद कर पा रही हैं. बीकॉम की पढ़ाई कर रही सोनम ग्रेजुएशन के बाद सोशल वर्क में ही उच्च शिक्षा हासिल करना चाहती हैं ताकि और बेहतर तरीके से बेजुबानों की मदद कर सकें. सोनम छुट्टा जानवरों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं हैं.