दुर्गाष्टमी अर्थात आठयो का पारंपरिक पर्व क्योंथल़ क्षेत्र में बीते सांय धराड़ी की पूजन के साथ हर्षाेल्लास के साथ मनाया गया। बता दें कि पहाड़ी क्षेत्रों में असोज माह के नवरात्रों की अष्टमी को धराड़ी पूजा का विशेष महत्व है। धराड़ी एक जंगली सफेद रंग का फूल है, जिसकी अष्टमी के दिन दुर्गा के रूप में पूजा की जाती है।
वरिष्ठ नागरिक विश्वानंद ठाकुर का कहना है कि धराड़ी का त्यौहार नवरात्रें के समापन और शरद् ऋतु के आगमन का सूचक है जिसे लोग सुख व समृद्धि के लिए बड़े श्रद्धा व आस्था के साथ मनाते हैं। इसी प्रकार वरिष्ठ नागरिक प्रीतम ठाकुर, अतर सिंह ठाकुर इत्यादि का कहना है कि धराड़ी पूजन की परंपरा कालांतर से चली आ रही है। अष्टमी के दिन लोग जंगलों से धराड़ी के फूलों को चुनकर लाते हैं। उसके गुच्छ बनाकर घर में पूजा के स्थान पर फूलों की माला पहनाकर सजाया जाता है। जिसमें दुर्गा मां के साथ भैरव को भी बनाया जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में धराड़ा कहा जाता है।
रात्रि को घर के मुख्यिा द्वारा धराड़ी के समक्ष धूप, दीप, नेवैध तथा घर पर बनाए गए व्यंजन का प्रसाद भेंट करके विधिवत पूजा की जाती है। उसके उपरांत घर के लोग रात्रि का भोजन ग्रहण करते हैं। इस दिन घर पर पहाड़ी व्यंजन अस्कली व दाल चावल बनाए जाते हैं। उन्होने बताया कि तत्कालीन क्योंथल रियासत के कुछ क्षेत्रों में धराड़ी को परिवार के सभी सदस्य सम्मानपूर्वक स्थानीय देवता के मंदिर में छोड़ते हैं, जहां पर महिलाओं द्वारा भजन व पारंपरिक गीत भी गाए जाते हैं। जबकि कुछ गांव में धराड़ी को रात्रि के अंतिम प्रहर अर्थात प्रातः चार बजे स्थानीय मंदिर अथवा पानी के चश्में के पास छोड़ा जाता है।
इनका कहना है कि धराड़ी का त्यौहार किसी विशेष अपरिहार्य कारणों जैसे सूतक पातक में नहीं मनाया जाता है। इस त्यौहार को तोड़ना लोग अपशकुन मानते हैं। इस मौके पर लोग अगले वर्ष इसी खुशी के साथ धराड़ी को आने का निमंत्रण देते हैं। बदलते परिवेश में त्यौहार संस्कृति के संवाहक है, जिनसे आपस में भाईचारा, पारस्परिक सहयोग तथा मिलजुल कर रहने की प्रेरणा मिलती है।