Ramnami Community न मंदिर चाहिए न मूर्ति: वो समुदाय जिसे राम से दूर किया गया तो उन्होंने राम को शरीर में बसा लिया

भगवान सबके लिए होता है, एक जात के लिए नहीं- रामनामी समुदाय

राम के नाम से करोड़ों लोगों की आस्थाएं जुड़ी है. ये राम एक समाज के देह पर भी बसते हैं. अपने शरीर पर राम नाम गुदवाने वाले इन लोगों के लिए ये ‘विद्रोह’ का प्रतीक है. इतिहास में इन्हें जब राम के दर्शन से रोका गया, तो उन्होंने राम को ही ख़ुद में बसा लिया. ये समुदाय है ‘रामनामी समुदाय’ (Ramnami Community).

भक्ति भेदभाव, विद्रोह और जाति व्यवस्था के खिलाफ खड़े समुदाय का ये अनोखा तरीका इन्हें सबसे अलग बनाता है. रामनामी समुदाय के लोगों ने पूरे शरीर पर राम के नाम का टैटू यानी गोदना करवाया हैं. इन्होंने न सिर्फ़ देह बल्कि जीभ और होठों पर भी ‘राम नाम’ गुदवा लिया.

पूर्वी मध्य प्रदेश, झारखंड के कोयला क्षेत्र और छत्तीसगढ़ में फैले रामनामी समुदाय ने एक सदी तक अपनी इस परंपरा को संजोये रखा, लेकिन अब युवाओं में इसके प्रति दिलचस्पी कम होती जा रही है.

‘राम’ नाम से क्यों जोड़ा गहरा नाता?

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अगर इसकी तह में जाएंगे, तो मालूम होता है कि ये समुदाय जाति व्यवस्था का दंश झेल रहा था. करीब एक सदी पहले जब उन्हें मंदिरों में प्रवेश से मना कर दिया गया और उन्हें जाति आधारित कुंओं का उपयोग करने के लिए मजबूर किया गया, तो उन्होंने अपने शरीर और चेहरे पर राम नाम के टैटू बनवाने शुरू कर दिए.

मान्यता है कि छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा के चारपारा गांव में एक दलित युवक परसराम ने 1890 के लगभग रामनामी संप्रदाय स्थापित किया था. इस स्थापना को भक्ति आंदोलन से भी जोड़ा जाता है. इसके साथ ही, इसे दलित आंदोलन के रूप में भी देखा जाता है.

बीबीसी की एक रिपोर्ट में रामनामी समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष मेहत्तरलाल टंडन कहते हैं, “मंदिरों पर सवर्णों ने धोखे से कब्ज़ा कर लिया था. हमें राम नाम से दूर करने की कोशिश की गई. हमने मंदिरों में जाना और मूर्ति पूजा छोड़ दी. इसलिए हमने राम को अपने कण-कण में बसा लिया.”

जातीय बगावत और ख़ास जीवन-शैली को अपनाना

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बगावत और रूढीवादिता की दिवारों को तोड़ने के लिए प्रख्य़ात ये समुदाय ‘गोदना’ (राम का नाम गुदवाने) के बाद एक अलग प्रकार की जीवन-शैली अपना लेता है. रमरमिहा नाम से भी मशहूर इस समुदाय के लोग टैटू करवाने के बाद रोज़ाना राम नाम का सुमिरन करते हैं. ये लोग शराब अन्य नशा छोड़ देते हैं. इनके कपड़े भी राम नाम से सजे होते हैं. इनके घर की दीवारों पर राम लिखा होता है, आपस में यह एक दूसरे को राम के नाम से ही पुकारते हैं और जाति, धर्म से दूर हर व्यक्ति से समान व्यवहार करना होता है. घर में रामायण रखनी होती है. इनके घरों में काली स्याही से घर की दीवार के बाहरी और अंदरुनी हिस्से में ‘राम राम’ लिखा हुआ मिल जाएगा. राम नाम की संख्या भी इस दौरान अहम सन्देश देती है. जैसे- माथे पर दो राम नाम गुदवाने वाले को शिरोमणी, पूरे माथे पर राम नाम लिखवाने वाले को सर्वांग रामनामी और देह के हर हिस्से में राम नाम लिखवाने वाले को नख शिखा राम नामी के नाम से जाना जाता है.

रॉयटर्स को दिए एक इंटरव्यू में 75 साल की रामनामी समुदाय की पुनई बाई ने कहा था, “उन्हें पूरे शरीर पर टैटू बनाने में करीब 18 साल का लंबा वक़्त लगा था. महज़ दो महीने की उम्र में उनके पूरे शरीर को पानी के साथ केरोसीन लैम्प से निकलने वाले काजल से बनी डाई का इस्तेमाल कर गोदना किया गया था.”

परंपरा से दूर हो रही है युवा पीढ़ी

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वर्तमान में इस समुदाय की संख्या में कमी आ रही है, जिसके पीछे की वजह मानी जाती है नयी पीढ़ी का इस संस्कृति पर भरोसा न करना. रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2017 तक लगभग 1,00,000 रामनामी छत्तीसगढ़ के एक दर्जन गांव में मौजूद थे.

1955 में सरकारी ऑर्डर के बाद जाति को लेकर होने वाला भेदभाव तुलनात्मक रूप से कम हुआ और इस समुदाय के लोगों ने भी दूसरे राज्यों में पढ़ाई-लिखाई और रोज़गार के लिए पलायन शुरू किया. फर्स्ट पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, रामनामी मेहत्तर लाल टंडन का कहना है कि “मंदिरों पर सवर्णों ने धोखे से कब्ज़ा कर लिया और हमें राम से दूर करने की कोशिश की गई. हमने मंदिरों में जाना छोड़ दिया, हमने मूर्तियों को छोड़ दिया. ये मंदिर और ये मूर्तियां इन पंडितों को ही मुबारक.”

कहा जाता है कि आधुनिकता ने रायगढ़, रायपुर और बिलासपुर ज़िले के रामनामियों में दो दशक पहले दस्तक देनी शुरू कर दी. उनका बाहरी दुनिया से भी संपर्क हुआ. आज पूरे शरीर पर राम नाम गुदवाने की संस्कृति तो लगभग ख़त्म ही हो चुकी है.

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इसके साथ ही, अक्टूबर 1992 में ‘इंडिया टुडे’ में छपी एक स्टोरी के मुताबिक़, इस समुदाय के गजानंद प्रसाद बंजारा कहते हैं कि “राम नाम गोदवाने, रामनामी चादर और पंखों की पगड़ी से उनकी जाति पता चलती है और वे पिछड़ी जातियों से होने वाले बुरे बर्ताव के शिकार बन जाते है.”

ऐसे में, इस जातीय पहचान से बचने के लिए भी इसे छोड़ना एक बड़ी वजह मानी जा सकती है.

खैर, आज भी इस समुदाय में जन्म लेने वाले बच्चे को राम नाम का टैटू करवाना अनिवार्य है. यह शरीर के किसी भी हिस्से पर होना चाहिए, खासकर सीने पर. यह बच्चे के दो साल की उम्र पूरी होने से पहले करना होता है. इस समुदाय की कहानी जानकार यही लगता है कि राम नाम एक अहसास है जो मंदिरों में रखी मूर्तियों से ज्यादा दिल में बसते हैं और सबसे बड़ी बात ईश्वर तो आप में हैं, उन्हें खोजने के लिए इतना क्यों भटकना?