महाराष्ट्र के जालना जिले के 24 वर्षीय अंबादास मस्के हाल ही में जापान के होंडा रिसर्च एंड डेवलपमेंट में डेटा विश्लेषक के रूप में शामिल हुए हैं. सोचने वाली बात है कि भारत से सैकड़ों तकनीकी विशेषज्ञ दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कंपनियों में शामिल होते हैं. तो फिर मस्के में क्या खास है? दरअसल, उनकी जीवन यात्रा पूरी तरह से विपरीत परिस्थितियों पर विजय पाने की कहानी रही है.
पिता और दादा थे मजदूर
अंबादास के दादा आजीविका के लिए जानवरों के शव हटाते थे. इसके बाद उनके पिता बंडू मस्के पुणे और मुंबई में एक मजदूर के रूप में काम करते थे. न्यू इंडिया एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, अंबादास ने कहा कि, “अधिकांश मजदूरों के बच्चे निर्माण स्थल पर ही अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं, पहले ईंट-पत्थर बजाते हैं और बाल मजदूर के रूप में काम करते हैं, फिर उसी स्थान पर या किसी अन्य निर्माण स्थल पर माता-पिता के स्थान पर स्थायी मजदूर के रूप में काम करते हैं.”
मां चाहती थी बच्चे जाएं स्कूल
हालांकि, अंबादास भाग्यशाली थे. उनकी मां हमेशा अपने बच्चों को स्कूल भेजने का सपना देखती थीं. उनका मानना था कि अच्छी शिक्षा उनके जीवन और भाग्य को बदल सकती है. उन्होंने इस बारे में बताया कि, “उनके माता-पिता उन्हें स्कूल भेजना चाहते थे. उन्होंने अंबादास का दाखिला नवी मुंबई के नगर निगम स्कूल में कराया. चूंकि यह सरकार द्वारा संचालित स्कूल था, इसलिए माता-पिता फीस के बोझ और अन्य खर्चों से बच गए. उन्हें स्कूल ने न केवल उन्हें पाठ्यपुस्तकें और वर्दी दी बल्कि वहां उन्हें दोपहर का खाना भी मिलता था.”
अंबादास ने अपनी प्राथमिक शिक्षा नवी मुंबई में पूरी की. यहां तक तो सरकारी स्कूल के सहारे उनकी शिक्षा हो गई लेकिन इससे आगे का सफर बिल्कुल भी आसान नहीं था. दूसरी तरफ उनके माता-पिता की नौकरी चली गई. उन्हें दूसरी नौकरी की तलाश में फिर से पुणे जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. अंबादस का स्कूल छूट गया. उन्होंने बताया कि “उनके माता-पिता एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास के कारण अपने बच्चों को शिक्षा से वंचित नहीं देखना चाहते थे. तब मेरे माता-पिता ने हमें हमारे दादा-दादी के साथ जालना जिले के हमारे गृह गांव परतूर भेजने का निर्णय लिया.”
उनके दादा-दादी के पास कोई ज़मीन या पक्का मकान नहीं था. उन्होंने बताया कि “उनके पास एक अस्थायी घर था. उनके माता-पिता हर महीने मनीऑर्डर भेजते थे. इस छोटी सी राशि की मदद से, उनकी शिक्षा पार्थुर के सरकारी जिला परिषद में फिर से शुरू हुई. उन्होंने फिर से शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया.”
पढ़ने में हमेशा से थे होशियार
अंबादास ने निजी कोचिंग के बिना 92 प्रतिशत अंकों के साथ मैट्रिक पास की. उन्होंने बारहवीं कक्षा में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किये. उन्होंने बताया कि “उन्हें बीटेक के लिए पुणे के सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल गया. उन्होंने अपने चार साल के इंजीनियरिंग के दौरान बहुत कुछ सीखा.”
अंबादास का कहना है कि अपने सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के कारण उन्हें कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ा. सबसे बड़ी समस्या उनके लिए भाषा थी. उनकी कक्षा में अधिकांश छात्र अंग्रेजी में बात करते थे जबकि उनकी अंग्रेजी अच्छी नहीं थी. बाद में उन्होंने किताबें पढ़कर, यूट्यूब पर वीडियो के साथ-साथ अंग्रेजी फिल्में देखकर इसमें सुधार किया. उन्हें खुद पर पूरा भरोसा था, इसलिए कॉलेज के दिनों में उन्हें ऐसे किसी बड़े मुद्दे का सामना नहीं करना पड़ा. उनका कहना है कि उनकी प्राथमिक शिक्षा और कॉलेज के दिनों के दौरान उनके शिक्षकों ने उनके व्यक्तित्व को आकार देने और शिक्षा में उनकी मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. शिक्षकों ने ही आईआईटी बॉम्बे में एमटेक के लिए प्रवेश परीक्षा पास करने और प्रवेश दिलाने में मदद की.
मां चाहती थी बेटा एसी केबिन में बैठे
अंबादास ने बताया कि उनकी मां हमेशा से उन्हें एयर-कंडीशनर केबिन में बैठे हुए देखना चाहती थी क्योंकि उनका मानना था कि एयर-कंडीशनर का मतलब है कि उस व्यक्ति ने अपने जीवन में कुछ बड़ा किया है. इसलिए वह एसी केबिन में बैठकर काम कर सकते हैं. शिक्षा और विकास की उनकी यही अवधारणा थी.
एमटेक पूरा करने के बाद अंबादास को तुरंत होंडा रिसर्च एंड डेवलपमेंट में डेटा साइंटिस्ट के रूप में काम करने का मौका मिला. उन्होंने बताया कि “उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वह जापान में काम करेंगे. यह परिवर्तन शिक्षा के कारण ही हुआ है. उन्हें खुद पर विश्वास है और मेरे माता-पिता को उनपर विश्वास है. उन्हें जिंदगी से कोई बड़ी उम्मीदें नहीं थीं. वह अपने वर्तमान पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. उन्होंने अपने गांव में एक नया घर बनाने का फैसला किया. उनका भाई पीएचडी कर रहा है और बहन ने नर्सिंग कोर्स किया है.
अंबादास का कहना है कि, “यह एक छोटी लेकिन सकारात्मक शुरुआत है. उन्हें बहुत आगे जाना है क्योंकि समाज में ऐसे कई अंबादास हैं जिन्हें अभी तक शिक्षा का स्वाद नहीं मिला है. उनके जैसे कई अंबादा हैं जो निर्माण स्थलों पर इधर-उधर घूम रहे हैं और अपने माता-पिता की मदद कर रहे हैं. उन्हें समाज के इन सभी उपेक्षित वर्गों को मुख्यधारा में लाना होगा और उन्हें अच्छी शिक्षा देनी होगी. उनका कहना है कि, अंबादास भाग्यशाली थे. उनकी मां हमेशा अपने बच्चों को स्कूल भेजने का सपना देखती थीं. उनका मानना था कि अच्छी शिक्षा उनके जीवन और भाग्य को बदल सकती है, और हुआ भी ऐसा ही.