Matangini Hazra: वो जाबांज़ महिला जो 73 की उम्र में देश के लिए अंग्रेज़ों की गोलियों के सामने चट्टान बनकर खड़ी हो गई थी

हमें ये आज़ादी एक दिन, एक हफ़्ते, एक महीने या एक साल में नहीं मिली. आज जो हम अपनी इच्छानुसार ज़िन्दगी जी रहे हैं, कहीं भी आने-जाने को स्वतंत्र हैं, बिना किसी डर के सिर उठा कर चल रहे हैं, ये सब हज़ारों लोगों के बलिदान के बाद ही मिला है. दुख की बात है कि हम में से बहुत से लोग इस आज़ादी का मोल नहीं समझते. दुख की बात है कि हम किसी निहित दिन पर ही आज़ादी के लिए सूली पर चढ़ जाने वालों का स्मरण करते हैं. उन वीरागनाओं और वीरों का याद करना उतना ही ज़रूरी है, जितना भविष्य की तैयारी करना.

हम आज़ाद हवा में सांस ले सके इसके लिए लाखों आम लोगों ने अपना सबकुछ गंवा दिया. उन्हें भविष्य की चिंता थी और इसीलिए उन्होंने अपना वर्तमान न्यौछावर कर दिया. इनमें से कुछ मतवालो को तो हम जानते हैं, उनकी जयंती, बरसी मनाते हैं लेकिन ऐस असंख्य नाम हैं जो इतिहास कि किताबों में ग़ुम हो गये. उनका नाम तक रिकॉर्ड में नहीं है. और कुछ ऐसे भी मतवाले हैं जिन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि भविष्य उन्हें कैसे याद रखेगा, उनके सिर पर तो सिर्फ़ एक धुन सवार थी- देश को अंग्रेज़ों से आज़ाद कराने की धुन.

और ऐसी ही एक महिला थीं मातंगिनी हाज़रा. वो ख्याति और प्रसिद्धि से तो दूर रहीं लेकिन उनकी कु़र्बानी भारत के इतिहास में सदैव अंकित रहेगी.

कौन थीं मातंगिनी हाज़रा?

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ज़िला मिदनापुर, पश्चिम बंगाल के तामलुक पुलिस स्टेशन के अंतर्गत आता है ग्राम होगला. 19 अक्टूबर, 1870 को इसी गांव में मातंगी हाज़रा का जन्म हुआ (कुछ मीडिया रिपोर्ट्स मातंगिनी का जन्म 1869 बताते हैं). बेहद ग़रीब परिवार में पैदा हुई थी मातंगिनी और इसी वजह से वो प्राथमिक शिक्षा भी प्राप्त नहीं कर सकीं. ताउम्र अशिक्षित रहीं मातंगिनी हाज़रा. उस समय देश में बाल विवाह का प्रचलन था और ग़रीब कम उम्र की नाबालिक लड़कियों का विवाह बुढ़े ज़मीनदारों, रइसों से कर दिया जाता था. मातंगिनी के साथ भी यही हुआ, The Indian Express की एक रिपोर्ट के अनुसार 12 साल की उम्र में उनकी शादी 60 की उम्र के त्रिलोचन हाज़रा से कर दी गई. त्रिलोचन हाज़रा का पहले से ही एक बेटा था.

विधवा होने के बाद सामाजिक कार्य करने लगीं.

18 की उम्र तक आते-आते मातंगिनी विधवा हो गईं और उनकी कोई संतान नहीं थी. वे अपने माता-पिता के घर वापस लौट आई लेकिन अपना अलग घर बनाकर रहने लगीं. पति के मरने के बाद वे बेसहारों का सहारा बनी और सामाजिक कार्यों में अपना समय बिताने लगीं. आस-पास किसी को भी परेशानी में देखती तो मातंगिनी उनकी सहायता करने का हर संभव प्रयास करती. शायद ही उन्हें पता हो कि क़िस्मत उनके लिए क्या खेल रच रही है.

राजनीति से जुड़ी

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दूसरों की सेवा करते हुए मातंगिनी का समय बीतने लगा. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में देश में आज़ादी की लौ तेज़ हो गई थी. समूचा देश एक स्वर में अंग्रेज़ों को देश से बाहर करने की मांग कर रहा था. 1905 में 35 की उम्र में मातंगिनी हाज़रा भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गईं और उन्हें प्रेरणा मिली महात्मा गांधी से. वैसे तो पूरे देश में ही महिलाएं और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे लेकिन मिदनापुर की हवा अलग थी, यहां बहुत ज़्यादा संख्या में औरतें स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी और उन्हीं में से एक थी मातंगिनी हाज़रा.

31 दिसंबर, 1929 को भारतीय राष्ट्रीय ​कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का घोषणा पत्र तैयार किया गया और पूर्ण स्वराज को कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया गया. देशवासियों को 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाने के लिए कहा गया. पूर्ण स्वराज घोषित करने के बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई. गांधी जी ने 12 मार्च, 1930 से 6 अप्रैल, 1930 के बीच 26 दिन की पदयात्रा की.

मातंगिनी बनी ‘गांधी बुड़ी’

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सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु होने तक मातंगिनी पूरी तरह से गांधी विचारधारा का पालन करने लगी थीं. वो ग़रीबों की मदद करती और चरखा चलाकर खादी बनाती.

राज्य सरकार के दस्तावेज़ों की मानें तो मातंगिनी हाज़रा गांधी जी से इतनी प्रेरित हो गईं कि आगे चलकर उनका नाम गांधी बुड़ी (वृद्धा गांधी) हो गया.

मातंगिनी की ज़िन्दगी में सबसे बड़ा परिवर्तन अभी आना बाक़ी था. 26 जनवरी, 1932 को सैंकड़ों पुरुष अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ पदयात्रा निकाल रहे थे. जैसे ही ये काफ़िला मातंगिनी के घर के सामने से गुज़रा, 62 वर्षीय मातंगिनी भी काफ़िले के साथ हो लीं. इसी साल मातंगिनी ने अलीनन नमक सेंटर में नमक बनाया. अंग्रेज़ों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और वृद्ध मातंगिनी को कई मील पैदल चलाया और फिर जेल में डाल दिया. कुछ दिनों बाद उसे छोड़ दिया गया.

चौकीदारी टैक्स के ख़िलाफ़ उठाई आवाज़

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मातंगिनी अंग्रेज़ों से डरती नहीं थीं और न ही जेल की प्रताड़ना सहकर वे अपने लक्ष्य से हटीं. जेल से रिहा होकर मातंगिनी ने चौकीदारी टैक्स के ख़िलाफ़ हो रहे आंदोलन में हिस्सा लिया. चौकीदारी टैक्स एक ऐसा टैक्स था जो गांववालों से वसूला जाता था और उससे इलाके में पुलिस की छोटी टुकड़ियां तैनात की जाती थीं. ये पुलिस गांववालों पर नज़र रखती और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रहे योजनाओं का पता लगाती. 1933 में जब मातंगिनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सब डिविज़न्ल कांफ़्रेंस में हिस्सा ले रही थीं तब अंग्रेज़ों ने निहत्थे लोगों पर लाठीचार्ज कर दिया. मातंगिनी बुरी तरह ज़ख़्मी हो गईं.

“लाट साहिब वापस जाओ”

मातंगिनी फिर भी कमज़ोर नहीं पड़ी. 1933 में ही ज़िले की राजधानी में एक मार्च निकाला गया. ये मार्च गवर्नर हाउस तक होना था. गवर्नर, सर जॉन एंडरसन घर की बालकनी पर खड़ा होकर मार्च देख रहा था. मातंगिनी स्वतंत्रता का झंडा लिए सबसे आगे खड़ी थी. जैसे ही मार्च गवर्नर की बालकनी के नीचे पहुंचा मातंगनी ने अपना बैनर ऊपर किया और ऊंची आवाज़ में बोली, ”लाट साहिब वापस जाओ”

मातंगिनी की अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ गतिविधियां लाट साहिबों की आंख की किरकिरी बन गई थी. इस घटना के बाद न सिर्फ़ मातंगिनी पर लाठियां बरसाईं गईं बल्कि उन्हें कठिन परिश्रम के साथ 6 महीने की जेल हुई, जेल में उनकी तबीयत काफ़ी ख़राब हो गई. इससे भी मातंगिनी नहीं टूटी और जेल से निकलते ही वापस ग़रीबों की मदद करने में लग गईं.

73 की उम्र में 6000 विरोध प्रदर्शकों के साथ ब्रितानिया सरकार के ख़िलाफ़ निकाला मार्च

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अगस्त, 1942 में गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरु किया. उसी साल सितंबर में मातंगिनी हाज़रा ने 6000 विरोध प्रदर्शकों के साथ मिलकर पदयात्रा निकाली. इस समूह का मक़सद था तामलुक पुलिस स्टेशन अंग्रेज़ों से छीनना.

73 वर्षीय मातंगिनी, हाथ में आज़ादी का झंडा लिए आगे बढ़ी और अंग्रेज़ों से विनम्रता से विरोध प्रदर्शकों पर गोलियां न चलाने की अपील की. अंग्रेज़ों ने एक न सुनी और मातंगिनी पर तीन गोलियां चलाईं, ज़ख्मी हालत में भी वो आज़ादी का झंडा लिए आगे बढ़ती रहीं और वन्दे मातरम की हुंकान भरकर ज़मीन पर गिर पड़ी लेकिन हाथ से झंडा नहीं छोड़ा.

मातंगिनी की शहादत ने बहुत से लोगों के कानों में आज़ादी का बिगुल बजा दिया.बहुत से लोग स्थानीय ब्रिटिश अधिकारियों के ख़िलाफ़ विरोध करते रहे. ग़ौरतलब है कि दो साल बाद, 1944 में गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया.

2002 में भारत छोड़ो आंदोलन की 60वीं वर्षगांठ पर भारतीय डाक ने मातंगी हाज़रा के नाम पर 5 रुपये का डाक टिकट निकाला. पश्चिम बंगाल स्थित उनके गांव में उनके नाम पर एक घर बनाया गया और 2015 में पूर्व मेदनीपुर में उनके नाम पर महिलाओं का कॉलेज खोला गया . पूरे राज्य में मातंगिनी हाज़रा के नाम पर कई गलियां, स्कूल, सड़कें हैं लेकिन एक लंबे समय तक उनकी शहादत लोगों की स्मृति में धूमिल हो गई थी.