हम हिन्दुस्तानियों के घर पर तीन चीज़ें लगभग रोज़ बनती है- चाय, दाल और कुछ मीठा. चाय के बिना हमारी सुबह नहीं होती, खाने में दाल न लो तो मां बेलन दिखाती हैं और खाने के बाद कुछ मीठा न चखो तो ऐसा लगता है जैसे कुछ खाया ही न हो. आप मीठे के शौकीन हों या न हो, बिना शक्कर की चाय/कॉफ़ी पीते हों लेकिन आपके भी फ़्रिज के कोने में मिठाई का डिब्बा ज़रूर होगा. हम इंडियंस नमकीन चीज़ों के लिए मना कर सकते हैं लेकिन मीठे के लिए मना करना बहुत कठिन है. बचपन याद करिए, चोट निकलने पर मम्मी चीनी खिलाकर चुप करवाती थी. पोलियो ड्रॉप्स लेने के बाद भी अस्पताल में कैंडी मिलती थी. मिठाई और भारतीयों का सदियों पुराना संबंध है. और बदलते दौर में इस रिश्ते में कई बीमारियां घुस चुकी हैं लेकिन रिश्ता तो अटूट ही है.
इंडियन डेज़र्ट्स की बात करें तो उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक कई तरह की मिठाइयां बनती हैं. बूंदी का लड्डू जिस तरह से टूटकर बिखर जाता है. वो काजू कतली के ऊपर की चांदी की परत का स्वाद सच में ‘बेशकिमती’ है. रस में डूबी जलेबी और रबड़ी में डूबी रस-मलाई. मिठाइयों में एक और नाम है जो अदब से लिया जाता है, वो है डोडा बर्फ़ी. भूरे रंग की, लस्सेदार, चिप-चिपी, ड्राई फ़्रूट्स से भरी. सर्दियों में इसे खूब खाया जाता है. क्या आप जानते हैं कि डोडा बर्फ़ी एक ज़माने में पहलवानों का स्नैक्स थी? फिर कैसे आ गई हमारी थाली में डोडा बर्फ़ी
विभाजन से पहले, पहलवान के घर हुआ जन्म!
बात है 1912 की. विभाजन से पहले के पाकिस्तान के पंजाब के सरघोड़ा ज़िले में एक शख़्स रहता था, लाला हंसराज विज विज. नाम में जैसा रौब वैसा ही काम भी थी, हरबंस पहलवानी करता था. पहलवानों की डायट के बारे में तो हम सभी जानते हैं, दिन में कई लीटर घी, दूध लेते हैं पहलवान. हंसराज भी पहलवानी करते और अपनी पहलवानों की बॉडी बनाए रखने के लिए खूब सारा दूध और घी पीते.दूध-घी से बोर होकर बनाया डोडा बर्फ़ी
पहलवान की रसोई में बनी
Home Grown के एक लेख के अनुसार, हंसराज विज दूध के सादे और उबाऊ स्वाद से तंग आ गए. घी के साथ भी उनका संबंध बिगड़ने लगा. फिर क्या था, हंसराज ने कुछ चमत्कारी बनाने का निर्णय लिया. वो रसोई में घुसे और दूध, मलाई को फेंटकर कुछ बनाने की कोशिश की. इसमें उन्होंने काफ़ी सारे ड्राई फ़्रूट्स, चीनी और घी भी मिलाया. जो चीज़ बनकर तैयार हुई वो थोड़ी लस्सेदार, दांत में फंसने वाली मीठी चीज़े थी. इस चीज़ को बर्फ़ी का आकार दिया गया और आज उसे ही दुनिया डोडा बर्फ़ी के नाम से जानती है.
पहलवान की रसोई से निकलकर घर-घर पहुंची
बच्चे हो या बड़े डोडा बर्फ़ी को कोई ना नहीं कह सकता. भले पूरी बर्फ़ी का टुकड़ा न खा पाएं लेकिन ज़रा सा तो चख ही लेते हैं. ये ऐक ऐसी मिठाई है जिसे खाने के लिए ज़रा मेहनत करनी पड़ती है, मतलब ये जीभ पर रखो तो पूरी तरह नहीं घुलती. इसे बनाने के लिए भी कई घंटों तक मेहनत करनी पड़ती है.
पंजाब में आज भी चलती है पहलवान की दुकान
अब सवाल ये है कि ये डोडा बर्फ़ी पहलवान की रसोई से निकलकर हर घर की पसंदीदा मिठाई कैसे बन गई? DhodhaHouse.com के लेख के अनुसार, 1947 में विभाजन के बाद हंसराज विज ने कोतकापुरा, पंजाब में रॉयल डोडा हाउस नाम से दुकान खोली. देश और विदेश में डोडा की डिमांड बढ़ती गई. आज भी कोतकापुरा में ये दुकान है और आज भी यहां के डोडा में सदियों पुराना स्वाद मिलता है.