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शराब के साथ खाई जाने वाली चीजों को चखना कहते हैं. अमीर हो या गरीब, देसी दारु पीने वाला हो या फिर ब्रांडेड शराब सभी अपनी हैसियत के मुताबिक चखना का पूरा इंतजाम करते हैं. बिना चखने के शायद ही कोई दारु पीता हो. चखना वो बहाना है, जिसके लालच में ड्रिंक न करने वाले भी अपने शराबी दोस्तों के संग मदिरापान की महफ़िल में शामिल हो जाते हैं. लेकिन, क्या आपने कभी सोचा कि आखिर चखना शराब पीने के साथ कैसे जुड़ गया?
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कैसे शराब के साथ जुड़ा चखना?
शराब पीने की परंपरा सदियों पुरानी है. चखने को अंग्रेजी में Bar Snacks कहते हैं. वहीं स्पैनिश में इसे ‘तापास’ कहा जाता हैं. अलग-अलग देशों में शराब के साथ लोग खाने वाली चीजों को शामिल करते हैं. वहीं इसके साथ खान-पान के इतिहास पर नजर डालें तो 19वीं शताब्दी में चखने को शराब के साथ जुड़ने का मुख्य कारण माना जाता है.
दरअसल, 1838 में अमेरिकी शहर न्यू ऑरलियंस के एक बार ‘ला बोरसे डि मास्पेरो’ ने पहली बार अपने ग्राहकों को ‘मुफ्त लंच’ का लालच दिया. यहां शराब पीने के लिए आने वाले ग्राहकों को मुफ्त में एक प्लेट खाना मिलता था. इसके पीछे बार का मकसद था कि वो खाने की लालच देकर ग्राहकों को लुभा सकें जिसका फायदा भी उस बार को हुआ. मुफ्त खाने की लालच में बार में शराब पीने वालों की तादाद में इजाफा हो गया.
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और ऐसे ही चखना शराब का साथी बन गया
आगे कनाडा, अमेरिका, नार्वे जैसे देशों में शराबबंदी के पक्ष में एक समाजिक आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसे इतिहास में टेम्परेंस मूवमेंट (Temperance Movement) के नाम से जाना जाता है. इन आंदोलनों का असर यह हुआ कि शराब बेचने को लेकर कायदे के नियम बनाए गए जिसका पालन करने के बाद ही कोई दुकानदार या बार शराब की बिक्री कर सकता था. एक ऐसा ही नियम 19वीं शताब्दी में न्यूयार्क में बना.
अब वही होटल रविवार को शराब परोस सकते थे जिनके यहां कम से कम 10 कमरें हों और जो शराब के साथ मुफ्त खाने-पीने की चीजें भी देते हों. ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि मजदूर वर्ग 6 दिन की कड़ी मेहनत के बाद रविवार को अपनी थकान उतारने के लिए शराब की दुकानों पर जाते थे.
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इन नियमों का असर यह हुआ कि छोटे-छोटे बार भी नियमों के तहत शराब बेचने के लिए लोगों को खाने में घटिया क्वालिटी का सही, मगर मुफ्त खाना परोसने लगे. इस तरह धीरे-धीरे चखना शराब का साथी बन गया.
भारत में कैसे हुई चखने की शुरुआत?
इतिहास के पन्नों को पलटें तो भारत में शराबबंदी को लेकर अधिकतर मुहिम आजादी के बाद ही चलाई गई. बावजूद इसके 20वीं शताब्दी की शुरुआत में तत्कालीन बॉम्बे में मेहनतकश मील के मजदूरों की बड़ी संख्या दिनभर की मेहनत के बाद थकान मिटाने के लिए बार की ओर रुख करने लगी. इसका असर यह हुआ कि शराबबंदी के बावजूद चोरी-छिपे शराब बेची जाने लगी और ग्राहकों को लुभाने के लिए बेहद सस्ता और घटिया खाना शराब के साथ मुफ्त मिलने लगा.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, शराब के साथ घोड़ों को खिलाए जाने वाले घटिया क्वालिटी के चने से लेकर उबले अंडे और मूंगफली तक चखने के रूप में दिया जाता था. हालांकि, कई बार ख़राब स्तर के खाने-पीने की चीजें देने की शिकायतों की वजह से अखबारों में इसकी सुर्खियां भी बनीं.
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आज तक की एक रिपोर्ट के अनुसार, आजादी के बाद 1950 के दौर में लागू शराबबंदी के बावजूद शराब की दुकानें चोरी छिपे शराब बेच रही थी. उस समय शराब की दुकानें ढूंढने का सबसे आसान तरीका था खुले में बिक रहे चने और अंडे की दुकानों को ढूंढना. इसके अलावा कबाब या मीट बेचने वाले की दुकान. ये जगहें आस-पास अघोषित बार होने का एक साइनबोर्ड था. फिर 70 के दशक में चने और चटनी जैसी चीजें शराब के साथ दी जाने लगी.
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90 के दशक आते-आते इसमें बड़ा बदलाव देखने को मिला. शराब बेचने वालों ने अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए मदिरापान के साथ चखने में ग्रिल्ड चिकन और फास्टफूड को अपने मेन्यू में शामिल कर लिया. आज मदिरापान करने वाले कई शराबी, शराब के साथ हेल्दी फ़ूड को अपने चखने के रूप में शामिल करते हैं. वहीं आमतौर पर चिप्स, नमकीन, पकौड़े को सबसे अधिक चखने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.