‘धिक्कार है तुम्हें बेटा शिव!’
‘तुम्हें अपने आपको मेरा बेटा कहना छोड़ देना चाहिए. तुम चूड़ियां पहनकर घर में बैठो. मैं स्वयं फ़ौज के साथ सिंहगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण करूंगी और विदेशी झंडे को उस पर से उतार कर फेंक दूंगी.’
ये वो शब्द हैं, जिन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज को एक महान योद्धा बना दिया. ये वो शब्द है, जिनको सुनकर शिवाजी ने तानाजी को बुलवाकर कहा था, “तानाजी! फ़ौज लेकर सिंहगढ़ पर आक्रमण कीजिए. किसी भी प्रकार से हमें सिंहगढ़ जीतना है.”
शिवाजी महाराज को एक शक्तिशाली योद्धा किसने बनाया. वो कौन था, जिसके शब्दों के सम्मान के लिए शिवाजी ने सिंहगढ़ के किले को जीतने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया, यहां तक कि अपने अज़ीज़ तानाजी तक को खो दिया था. शिवाजी महाराज को शक्तिशाली यौद्धा बनाने में जिस व्यक्ति का सबसे बड़ा योगदान था, वो थी उनकी मां जीजाबाई। वही जीजाबाई, जिनके शब्दों के सम्मान के लिए शिवाजी ने सिंहगढ़ किले को जीतने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. यहां तक कि अपने अज़ीज़ तानाजी तक को खो दिया.
छोटी ही उम्र से गुरु, समर्थ रामदास की मदद से उन्होंने शिवाजी महारीज को एक सैनिक की तरह बड़ा किया. साथ ही उनके अंदर वीरता के बीज रोपित करती रहीं. शिवाजी और उनका मां जीजाबाई का एक किस्सा ख़ासा मशहूर है. जिसका जिक्र, ‘भारत की गरिमामयी नारियां’ नामक किताब में मिलता है. किस्सा कुछ ऐसा है कि जब भी जीजाबाई सिंहगढ़ के किले पर मुगलों के झंडे को देखती थीं, तब उनका कलेजा दु:ख से भर जाता था.
एक दिन उन्होंने शिवाजी को अपने पास बुलाया और कहा, “बेटा शिवा! तुमने किसी भी कीमत पर सिंहगढ़ जीतना है. वह यहीं नहीं रुकी. उन्होंने शिवाजी के अंदर जोश भरते हुए कहा, बेटा अगर तुमने इसके ऊपर लहराते हुए विदेशी झंड़े को उतार कर नहीं फेंका दिया, तो कुछ भी नहीं किया. मैं तुम्हें उसी समय अपना पुत्र समझूंगी, जब तुम ऐसा करने में सफल होगे.”
उस समय शिवाजी इतने परिपक्व नहीं थे. उन्होंने जीजाबाई के सामने सिर झुकाते हुए कहा, “माता! मुग़लों की सेना हमारी तुलना में बहुत विशाल है. हमारी मौजूदा स्थिति भी उनकी तुलना में कमज़ोर है. ऐसे में उनसे युद्ध करना और सिंहगढ़ से उनका झंडा उतारना आसान नहीं होगा. यह एक कठिन लक्ष्य है.” शिवाजी का यह जवाब जीजाबाई के गले से नहीं उतरा. वो आवेश में आ गईं और गुस्से में कहा, ”धिक्कार है तुम्हे बेटा शिव! तुम्हें ख़ुद मेरा बेटा कहना छोड़ देना चाहिए. तुम चूड़ियां पहनकर घर में बैठो. मैं स्वयं फ़ौज के साथ सिंहगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण करूंगी और विदेशी झंडे को उस पर से उतार कर फेंक दूंगी.”
मां की बातें सुनकर शिवाजी लज्जित हो गए. उन्होंने सबसे पहले अपनी मां से क्षमा मांगी. फिर बोले, “माता, मैं तुम्हारी यह इच्छा ज़रूर पूरी करूंगा, चाहे जो कुछ हो जाए. अगले ही पल उन्होंने तानाजी को बुलवाया और जंग की तैयारी करने के लिए कहा.”
शिवाजी के आदेश पर तानाजी सिहंगढ़ जीतने के लिए बढ़ गए और योजनाबद्ध तरीके से सैनिकों के साथ क़िले के नीचे इकट्ठे हुए. क़िले की दीवारें बहुत ऊंची और बिलकुल सीधी थी. उस पर चढ़ाई मुश्किल भरी थी. ऐसे में तानाजी ने सूझ-बूझ से काम लिया और चार-पांच सैनिकों के साथ अपनी किले की दीवार पर चढ़ना शुरू कर दिया.
अंतत: तानाजी क़िले के नज़दीक पहुंच में सफल रहे. इसके बाद उन्होंने रस्सी की मदद से बाकी साथियों को भी क़िले के ऊपर बुला लिया. आगे सीधे मोर्च पर वह विरोधी के साथ वीरता से लड़े और सिंहगढ़ पर अधिकार कर लिया, पर वे स्वयं नहीं रहे.
शिवाजी जो जब यह समाचार मिला, तो उनकी आंखें नम हो गईं. इस जीत के बाद उनके मुंह से बस यही निकला था कि ‘गढ़ आला, पन सिंह गेला’ यानी किला तो जीत लिया, लेकिन अपना शेर खो दिया. शिवाजी की यह जीत इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों से दर्ज है.