Dhan Singh Thapa: 1962 के युद्ध का वो परमवीर, जो मौत और विरोधियों को हरा कर महीनों बाद वापस लौटा

20 अक्टूबर 1962. चीनी सैनिकों ने चुशुल एयरफ़ील्ड पर कब्ज़े के इरादे से लद्दाख की एक पोस्ट पर तोप और मोर्टार से बम दागने शुरू कर दिए. चीन की इस घुसपैठ का सामना करने के लिए पैंगॉन्ग झील के उत्तरी तट पर मौजूद श्रीजप-1 पोस्ट पर गोरखा राइफल्स के कुछ जवान मौजूद थे. जिन्होंने अपने शौर्य से दुश्मन को एक बार नहीं, बल्कि तीन बार पीछे हटने पर मजबूर किया.

दुर्भाग्य से अंतत: वह इस पोस्ट को नहीं बचा पाए और बंदी बना लिए गए. हालांकि, भारतीय सेना को इसकी ख़बर नहीं थी. इस पोस्ट पर चीनी हमले के साथ ही उसने मान लिया था कि उनके गोरखा जवान शहीद हो गए होंगे. यहां तक कि इस टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे मेजर धन सिंह थापा के परिवार ने उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया था. मगर भारत-चीन युद्ध के बाद मेजर थापा चीन से मौत को मात देकर वापस लौटे और गोरखा रायफ़ल्स की शान बने.

शिमला के शहर सुरम्य में पैदा हुए धन सिंह थापा(Dhan Singh Thapa)

मेजर धन सिंह थापा

शिमला में एक शहर है सुरम्य. धन सिंह थापा(Dhan Singh Thapa) यहीं के एक नेपाली परिवार में 04 जून 1928 को पैदा हुए. बचपन से ही थापा सेना का हिस्सा बनना चाहते थे. बड़े होकर 28 अगस्त 1949 को उन्होंने अपनी इस इच्छा को पूरा किया. यह वह तारीख थी, जब थापा 8 गोरखा राइफ़ल्स की पहली बटालियन का हिस्सा बनाए गए.

अपनी नियुक्ति के दिन से ही थापा ने सभी को प्रभावित किया. उनके शौर्य के किस्से उनके साथियों के बीच खू़ब मशहूर थे. सीनियर अधिकारियों द्वारा दी गई हर ज़िम्मेदारी को उन्होंने बख़ूबी निभाया. यही कारण रहा कि हिमालय क्षेत्र में विवादित सीमाओं पर चीनी सेना की घुसपैठ बढ़ी और भारतीय सेना को इसे रोकने के लिए कहा गया, तो थापा इस अभियान का हिस्सा बने.

1962 में ‘फ़ॉरवर्ड पॉलिसी’ के तहत भारतीय सेना द्वारा विवादित क्षेत्रों पर कई छोटी-छोटी पोस्ट तैयार की गई. ऐसी उम्मीद थी कि भारत के इस कदम के बाद चीनी सेना हमला नहीं करेगी. मगर चीन के दिमाग में कुछ और चल रहा था. चीनी सेना ने भौगोलिक परिस्तिथियों का लाभ उठाया और युद्ध की शुरुआत कर दी, जो इतिहास के पन्नों में काले अक्षरों में दर्ज हुआ.

1962 के भारत-चीन युद्ध में दुश्मन से दो-दो हाथ

इस युद्ध के दौरान धन सिंह थापा 8 गोरखा राइफ़ल्स की पहली बटालियन के 27 अन्य साथियों के साथ पैंगॉन्ग झील के उत्तरी तट पर स्थित सृजप पोस्ट पर तैनात थे. उन्हें अपने आसपास के करीब 48 वर्ग किमी के क्षेत्र को चीनी सैनिकों से सुरक्षित रखना था. वह अपनी पोस्ट पर मुस्तैद थे.

तभी 20 अक्टूबर, 1962 को चीनी सेना के करीब 600 सैनिकों ने तोपों और मोर्टारों की मदद से थापा की पोस्ट पर धावा बोल दिया. गोरखा दुश्मन के साथ पूरी ताकत से लड़े और बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों को मार गिराया. साथ ही चीनी सैनिकों की पहली कोशिश को नाकाम कर दिया. दुश्मन गोरखा के जवाब को देखकर हैरान था. उसके समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें. मसलन गुस्से में आकर वह तेज़ी से थापा की पोस्ट के करीब पहुंचे और और उसे आग के हवाले कर दिया.

गोरखाओं ने हैंड ग्रेनेड और छोटे हथियारों से एक बार फिर से दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दिया और उसे पीछे हटने पर मजबूर किया. इस पोस्ट को जीतने की यह चीन की दूसरी कोशिश थी, जिसे थापा की टुकड़ी ने नाकामयाब कर दिया था. दूसरे सैनिक समझ चुके थे कि इस पोस्ट को जीतना उतना आसान नहीं है, जितना वह समझ रहे थे. अंतत: वह एक ख़ास रणनीति के साथ आगे बढ़े और इस बार एक बड़ी संख्या में थापा के साथियों को अपना निशाना बनाया.

जब दुश्मन ने मेजर धन सिंह थापा के बंकर पर बम फेंक दिया

जब दुश्मन ने मेजर धन सिंह थापा के बंकर पर बम फेंक दिया

अब केवल तीन साथियों के साथ थापा एक बंकर से दुश्मन पर गोली चला रहे थे. तभी एक बम उनके बंकर पर आकर गिरा. वह फटता इससे पहले वह बंकर से बाहर कूद गए और हाथ से ही दुश्मन को मारने लगे. हालांकि, ज़्यादा देर तक वह मुकाबला नहीं कर सके और बंदी बना लिए गए. दुर्भाग्यवश भारतीय सेना को इसकी ख़बर नहीं थी.

उनके मुताबिक थापा अपने साथियों के साथ युद्धभूमि में शहीद हो चुके थे. उधर थापा की शहादत की ख़बर उनके परिवार को मिली तो वह शोक में डूब गया. अंतत: इससे बाहर आकर उन्होंने थापा का अन्तिम संस्कार किया. भारत सरकार ने उनकी वीरता का सम्मान करते हुए उन्हें ‘परमवीर चक्र’ देने की घोषणा कर दी. मगर थापा की कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई…

कुछ वक्त बाद युद्ध ख़त्म हुआ, तो चीन ने भारत को एक लिस्ट सौंपी. इस लिस्ट में उन लोगों के नाम शामिल थे, जिन्हें उसने युद्ध के दौरान बन्दी बनाया था. इस सूची में एक नाम मेजर थापा का भी था, जिसे पढ़कर पूरा देश झूम उठा. 10 मई, 1963 को थापा चीन से मौत को मात देकर वापस लौटे तो सेना मुख्यालय समेत पूरे देश ने उनका भव्य स्वागत किया.

…और चीन से मौत को मात देकर वापस लौटे मेजर धन सिंह थापा

Major Dhan Singh Thapa Statue

बंदी बनाए जाने के बाद उन्हें कई तरह की प्रताड़ना से गुज़रना पड़ा था. मगर इस गोरखा को वह झुका नहीं पाए. चीन से लौटने के बाद थापा कई साल तक सेना का हिस्सा रहे. बाद में वह रिटायर हुए तो अपने परिवार के साथ लखनऊ में जा बसे थे. वहीं उन्होंने 5 सितंबर, 2005 को हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं.