Chandra Shekhar Azad: अपनी सारी तस्वीरें जला दीं ताकि अंग्रेज़ों को ये पता न चले वो दिखते कैसे हैं

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“दुश्मनों की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे…”

ये मात्र पंक्तियां नहीं, बल्कि आज़ादी का खुला खत है. जिसे देश के लिए निर्भीक क्रान्तिकारी चंद्रशेखर आज़ाद ने लिखा था. कहते हैं जब वह मंच से यह पंक्तियां पढ़ा करते थे, तो युवाओं में एक नया जोश भर जाता था. उन्होंने इन पंक्तियों को सिर्फ़ गुनगुनाया ही नहीं, बल्कि इसे यथार्थ भी कर गए. चंद्रशेखर आज़ाद महज़ एक नाम नहीं थे, बल्कि वो आग थे जिसकी तपिश के कारण आज भी नौजवानों के लहू में उबाल आ जाता है.

मां के सपनों को तोड़ कर निभाई देशभक्ति

चंद्रशेखर आजादNews18

23 जुलाई 1906 के दिन मध्यप्रदेश के भाबरा नामक गांव में माता जगरानी देवी और पिता सीताराम तिवारी के घर एक बच्चे का जन्म हुआ. नाम रखा गया चंद्रशेखर तिवारी. कहने को तो वह भी एक गुलाम ही था, लेकिन उसे ये गुलामी मंज़ूर नहीं थी.

देश आज़ाद होने से बहुत वर्ष पूर्व ही उसने खुद को आज़ाद घोषित कर दिया. वह बच्चा सिर्फ़ अंग्रेज़ों की गुलामी से ही नहीं, बल्कि धर्म और जाति से भी आज़ाद हो गया. इसीलिए तो उसने अपना नाम चंद्रशेखर तिवारी की जगह चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ रख लिया. आज़ाद, जो अब भारत माता का सपूत था.

उनकी मां हमेशा सोचती थी कि उसका बेटा संस्कृत का विद्वान बनेगा. इसी सोच के साथ मां ने अपने चंदू (आज़ाद के बचपन का नाम) को बनारस पढ़ने भेजा था. लेकिन चंदू की किस्मत पहले ही लिखी जा चुकी थी. चंदू देश के लाखों लोगों की तरह महत्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित हुआ. जल्द ही उसने हाथ से किताबें छोड़ कर तिरंगा थाम लिया. चंदू एक मां के सपने को तोड़ कर दूसरी मां को आज़ादी दिलाने का प्रण ले चुका था.

आज़ादी से पहले ही आज़ाद हो गया चंदू

असहयोग आन्दोलन के दौरान बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. इन्हीं में से एक गिरफ़्तारी 14 साल के चंद्रशेखर तिवारी उर्फ़ चंदू की भी हुई. उन्हें जब के सामने पेश किया गया. जज ने पूछा “नाम क्या है ?” चंदू सीना चौड़ा करते हुए बोला ‘आज़ाद.’ जज ने पूछा पिता का नाम क्या है ? आज़ाद ने फिर निर्भीक्ता से उत्तर दिया ‘स्वतंत्रता.’ जज ने आखिरी सवाल पूछा अपना पता बताओ ? चंदू ने गर्व से कहा ‘जेल.’

क्या आप कल्पना कर सकते हैं उस माहौल की, जब हाथ में बंदूकें लिए अंग्रेज़ सिपाही खड़े हों, सामने सज़ा सुनाने वाला एक गोरा जज बैठा हो, जो इस बच्चे को इसकी नाफ़रमानी के लिए कोई भी सज़ा सुना सकता है. ऐसे माहौल में ये 14 साल का लड़का बिना डरे, बिना झिझके, गर्व से सीन चौड़ा कर जवाब देता है. गुलाम देश का होते हुए ख़ुद को आज़ाद घोषित कर देता है. ऐसा नहीं था कि 14 साल के इस बच्चे को तोड़ने की कोशिश नहीं की गई. जज ने 15 कोड़े मारने की सज़ा सुनाई, सोचा कि ये नन्हा सा बालक एक दो कोड़े खाने के बाद पीड़ा से छटपटाने लगेगा, रो-रो कर माफी मांगेगा. मगर वो तो आज़ाद हो चुका था.

उसे अब किसी के सामने झुकना मंज़ूर कहां था, फिर भले ही जो हो जाए. माफ़ी मांगना तो दूर, वो आज़ाद लड़का तो हर कोड़े के बाद ‘वन्दे मातरम’ का नारा बुलंद करने लगा.

भेस बदलने में माहिर थे चंद्रशेखर ‘आज़ाद’

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महत्मा गांधी के असहयोग अन्दोलन ने 14 वर्षीय चंदू को आज़ाद कर दिया और आज़ाद की इस आज़ादी ने उन्हें एक निडर क्रांतिकारी बना दिया. आज़ाद 17 वर्ष की अवस्था में आज़ाद क्रांतिकारी दल ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में सम्मिलित हो गए. उम्र बढ़ने के साथ आज़ाद के अंदर जल रही चिंगारी दहकती आग में बदल गई. कहते हैं, इन्हीं दिनों आज़ाद ने मध्यप्रदेश के झबुआ क्षेत्र के आदिवासियों से तीरअंदाज़ी और निशानेबाज़ी सीखी. दिनों दिन आज़ाद निखरते गए. यही कारण रह कि आज़ाद ने उस समय के युवाओं को जितना प्रेरित किया, उतना शायद ही अन्य किसी क्रांतिकारी ने किया हो.

चुस्ती-फुर्ती, निशानेबाज़ी के अतिरिक्त एक और कला थी जिसमें आज़ाद का कोई सानी नहीं था. आज़ाद भेस बदलने में माहिर थे. कहा जाता है कि उन्होंने झांसी के पास एक मंदिर में गुफ़ा बना रखी थी. ये गुफ़ा 8 फ़ीट गहरी और 4 फ़ीट चौड़ी थी. एक सन्यासी के रूप में वह इसी गुफ़ा में रहा करते थे. कहा जाता है कि एक बार अंग्रेजों को इनकी इस खुफ़िया जगह की सूचना मिल गई. अंग्रेजों ने इन्हें घेर लिया लेकिन आज़ाद तो आज़ाद थे. अंग्रेजों के सामने से ही गुज़रे लेकिन अंग्रेज सिपाही इन्हें पहचान ना पाये. आज़ाद उस समय एक स्त्री के भेस में थे.

इनके भेस बदलने का एक उदाहरण ऐसा है, जिसे सुन कर आप दंग रह जाएंगे. उन दिनों आज़ाद अंग्रेजों के आंख की वो किरकिरी बन गए थे, जो लगातार टीस देती रही थी मगर पकड़ में नहीं आती थी. इसी कारण आज़ाद ने अपनी जिंदगी के 10 साल फ़रार रहते हुए बिताए, इसमें उनका ज्यादातर समय झांसी और आसपास के ज़िलों में ही बीता. ऐसे में अंग्रेजी सरकार के लिए इन्हें पकड़ना बेहद ज़रूरी हो गया था.

इस काम के लिए एक अंग्रेज़ ऑफ़सर को चुना गया. वह हर तरफ़ आज़ाद को खोज रहा था. आज़ाद 8 महीने तक उसी अधिकारी के ड्राईवर बन कर रहे और उसे इसकी भनक तक ना लगी. इतना ही नहीं, बल्कि जब वह अधिकारी आज़ाद को खोजने निकलता, तो आज़ाद ही उसकी गाड़ी चला रहे होते.

‘आज़ाद’ ने सभी तस्वीरें नष्ट कर दी थीं

आज़ाद कभी पुलिस के हाथ नहीं आए. इसका एक बड़ा कारण ये था कि पुलिस को सही तरह से पता ही नहीं था कि असल में आज़ाद दिखते कैसे हैं. जैसा मुखबिर पुलिस को बताते थे. वैसी ही छवि पुलिस की नज़रों में आज़ाद की थी. इसकी बड़ी वजह ये थी कि आज़ाद ने अपनी सभी तस्वीरें नष्ट करवा दी थीं, सिवाए एक को छोड़ कर. वह भी उनकी शहादत के बाद लोगों के सामने आई.

आपने चंद्रशेखर आज़ाद की हर जगह एक ही तस्वीर देखी होगी और ये वो तस्वीर है, जिसमें आज़ाद धोती लपेटे मूंछों पर ताव देते हुए नज़र आ रहे हैं. दरअसल यह तस्वीर उनके एक दोस्त ने खींची थी. आज़ाद ये तस्वीर खिंचवाना नहीं चाहते थे, लेकिन दोस्त के बार-बार कहने पर उन्होंने खिंचवा ली.

कुछ समय बाद आज़ाद को ये ख़्याल आया कि अगर वह पुलिस से बचना चाहते हैं तो उन्हें पुलिस को ये पता नहीं लगने देना होगा कि वह दिखते कैसे हैं. इसके लिए उन्हें अपनी तमाम तस्वीरें नष्ट करनी पड़तीं. इस काम के लिए उन्होंने अपने एक मित्र विश्वनाथ वैशम्पयान को चुना. उन्होंने विश्वनाथ से उनकी सभी तस्वीरों को नष्ट करने को कहा. विश्वनाथ ने अन्य सभी तस्वीरें तो नष्ट कर दी, लेकिन वो तस्वीर जो आज़ाद के एक दोस्त ने खींची थी वह रह गई. जब विश्वनाथ ने उस दोस्त के पास जा कर फोटो को नष्ट करने का आग्रह किया तो उस दोस्त ने ये कह कर मना कर दिया कि आज़ाद की एक तस्वीर होनी जरूरी है. आज़ादी के बाद लोगों को ये तो पता लगे कि जो शख़्स उनके लिए आज़ादी की जंग लड़ा, असल में वो दिखता कैसा था. उन्होंने आज़ाद की तस्वीर की कॉपी नष्ट कर दी मगर उसका नेगेटिव सुरक्षित रख लिया. आज़ाद की शहादत के बाद ही उनकी ये तस्वीर दुनिया के सामने आईं.

आज़ादी में ही जिए, आज़ाद ही चले गए

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आज़ाद कभी गुलामी की जडंजीरों में नहीं जकड़े गए. अंतिम सांस तक वह आज़ाद ही रहे. चंद्रशेखर आज़ाद ने प्रसिद्ध काकोरी कांड में अहम भूमिका निभाई. दरअसल क्रांतिकारियों का मानना था कि जो ख़ज़ाना अंग्रेज़ों के पास है, वह भारत का है और अगर उसे फिर से हथिया कर भारत को आज़ाद कराने में ख़र्च किया जाए तो इसमें कोई हर्ज़ नहीं है. इसी सोच के साथ 9 अगस्त, 1925 को क्रान्तिकारियों ने लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान पर सहारनपुर – लखनऊ सवारी गाड़ी को रोक कर लिया. इसमें अंग्रेजों का खजाना था जिसे लूट लिया गया. इस घटना के बाद जब अंग्रेज़ी हुकूमत कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गयी तब आज़ाद ने अपने संगठन का नाम बदलकर नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन एण्ड आर्मी’ रख लिया.

कहा जाता है आज़ाद अपने साथ एक गोली अतिरिक्त ले कर चलते थे. वो हमेशा कहते थे कि अंग्रेजों की गोली उनकी मृत्यु का कारण नहीं बनेगी. हुआ भी ऐसा ही. 27 फरवरी 1931 को किसी ने पुलिस को ये ख़बर दे दी कि आज़ाद और सुखदेव इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में मौजूद हैं. ये ख़बर पाते ही डिप्टी एसपी विश्वेश्वर सिंह तथा अंग्रेज़ी अफ़सर नॉट बावर अल्फ्रेड पार्क पहुंचे और आज़ाद तथा सुखदेव को घेर लिया. दोनों तरफ़ से गोलियां चलने लगीं. आज़ाद की एक गोली विश्वेश्वर सिंह के जबड़े पर लगी. आज़ाद इतनी तेजी से गोलियां दाग रहे थे कि अंग्रेजी अफ़सर नॉट को अपनी पिस्तौल में गोलियां भरने का मौका ही नहीं मिला. वो जब गोली भरने को हो,ता आज़ाद तब गोली चला देते. खुद अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए उन्होंने सुखदेव को वहां से सुरक्षित निकाल दिया. यहां दुख की बात ये थी कि आज़ाद हर तरफ से घिर गये थे और सिपाहियों की गोलियों का निशान बन रहे थे. इस बीच उनकी गोलियां ख़त्म हो गईं. अंतिम गोली बची थी. उन्हें अपना वो प्रण याद था कि वह कभी अंग्रेजों की गोली से नहीं मरेंगे.  उन्होंने अंतिम गोली पिस्तौल में भरी और खुद पर चला दी. इसके साथ ही चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने कथन को सत्य साबित कर दिया.

कई साल तक मां करती रही इंतज़ार

ये बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि एक अमर शहीद की मां को वृद्धावस्था में तंगहाली भरा जीवन जीना पड़ा. आज़ाद के शहीद होने के कुछ साल बाद उनके पिता सीताराम तिवारी भी इस दुनिया से चल बसे, आज़ाद के भाई पहले ही ये दुनिया छोड़ चुके थे. अब उनकी मां ही बची थीं जिनके पास बुढ़ापे के लिए कोई सहारा नहीं था. इतने बुरे दिन देखने के बावजूद उन्होंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया. वो उबली दाल, कोदो और कंदमूल खा कर गुजारा करती रहीं. कहते हैं उनके दो ही सपने थे एक आज़ाद को फिर से देखना और दूसरा तीर्थयात्रा करना. ये दोनों सपने पूरे भी हुए.

आज़ाद के साथी सदाशिव राव मलकापुरकर ने आज़ाद की मां जगरानी देवी के ये दोनों सपने पूरे किए. आज़ाद की मां की आंखें अपने बेटे के इंतज़ार में रो रो कर खराब हो गई थीं. इस हालत में वह ज़्यादा दिन नहीं जी पातीं लेकिन ईश्वर का शुक्र है कि उन दिनों उन्हें सदाशिव का साथ मिल गया. सदाशिव जेल से बाहर आए तो, उन्हें आज़ाद की मां की स्थिति के बारे में पता चला. वह उन्हें अपने साथ झांसी ले आए. अपनी मां की तरह उनकी सेवा की. आज़ाद तो वापस नहीं आ सकते थे लेकिन सदाशिव ने आज़ाद की कमी ज़रूर पूरी कर दी. उन्होंने जगरानी देवी को तीर्थस्थान भी घुमाए और उनके निधन के बाद एक बेटे की तरह विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार भी करवाया.

आज़ाद के ज़िंदा रहते तो अंग्रेज उन्हें पकड़ नहीं पाये, लेकिन शहीद होने के बाद कई अफ़वाहें ज़रूर उड़ा दी गईं

इन्हीं के आधार पर कई लोग आज ये मानते हैं कि आज़ाद की शहादत उनकी अपनी गोली से नहीं, बल्कि अंग्रेज़ों की गोली से हुई थी. इसके अलावा और भी कुछ अफवाहें तथा भ्रम हैं, जो आज़ाद से जुड़ी हैं. जैसे कि कई लोगों का मानना है कि आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को नहीं, बल्कि 7 जनवरी 1906 को हुआ था. इसके साथ ही ये भी दावा किया जाता है कि उनका जन्म मध्यप्रदेश के भाबरा में नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के उन्नव में हुआ था. हां, यह बात ज़रूर है कि शहीद आज़ाद का पैतृक गांव उन्नाव ही था, लेकिन उनके जन्म पर हो रहे दावे का कोई साक्ष्य नहीं है.

आज़ादी की गाथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय

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वैसे तो चंद्रशेखर आज़ाद के बलिदान के ऋण से हम कभी मुक्त नहीं हो सकते, लेकिन उनके सम्मान में जितना किया जाए उतना ही कम है. चंद्रशेखर आज़ाद जिस अल्फ्रेड पार्क में शहीद हुए थे. उस पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आज़ाद पार्क रखा दिया गया था. इसके साथ ही उनके गांव का नाम भी उनके नाम पर रखा गया. जिस स्थान पर उनका जन्म हुआ, वहां उनके नाम का स्मारक बनाया गया है.

यह केवल स्मारक नहीं बल्कि एक मंदिर है, जिसे ‘अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद स्मृति मंदिर’ का नाम दिया गया है. यहां लोग बड़ी श्रद्धा से आज़ाद की प्रतिमा के आगे शीश झुकाते हैं तथा उन्हें उनके बलिदान के लिए नमन करते हैं. ये एक आज़ाद सोच ही थी, जिसने 14 साल के एक बच्चे को एक पूरी हुकूमत के सामने खड़ा होने की हिम्मत दी, जिसकी वजह से एक नौजवान की नसों में खू़न के साथ आज़ादी की तमन्ना दौड़ने लगी, जिसने एक आम शख़्स को ऐसा क्रांतिकारी बनाया जो भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने पर भी नहीं हिचकिचाया.

आज़ाद के सपनों का स्वतंत्र भारत उसी आज़ादी की सोच पर टिका हुआ था, जहां देश का हर नागरिक सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं बल्कि दिल और दिमाग से भी आज़ाद हो. आज़ादी के इस मतवाले को, भारत के इस महान सपूत को, युवाओं के अंदर जोश भरने वाले इस क्रांतिकारी को, इस महान बलिदानी को इनकी जयंती पर हम कोटि कोटि नमन करते हैं.