साल है 1576. 18 जून की सुबह सूर्योदय के 3 घंटे बाद मेवाड़ और मुगल सेना टकराने को तैयार थी. मुगल बादशाह अकबर की इच्छा थी कि भारत पर उसका एकछत्र राज हो. 1576 तक मेवाड़ के अलावा बाकी का उत्तर भारत और राजपूत अकबर के अधीन आ चुके थे. कुछ बल से कुछ कूटनीति से. मेवाड़ दिल्ली आगरा से गुजरात के बीच भी आता था और गुजरात से सीधा संपर्क व्यापार के लिए बहुत जरूरी था.
वही मेवाड़ के लिए ये स्वतंत्रता और अस्तित्व का प्रश्न था. करीब 7- 8 साल पहले ही मुग़ल मेवाड़ के उपजाऊ पूर्वी इलाके को जीत चुके थे. रणथंबौरगढ़ और चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की पुरानी राजधानी मुगलों के हाथ पड़ चुके थे. मेवाड़ के शासक महाराजा महाराणा प्रताप के हाथ केवल पश्चिम के जंगली और पहाड़ी इलाके रह गए थे फिर भी उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से साफ मना कर दिया.
अकबर एक के बाद एक दूत भेजता गया पर महाराणा प्रताप को कोई फर्क नहीं पड़ा, वो अड़े रहे. जंग होनी तय थी. अकबर ने अपने भरोसेमंद जनरल मानसिंह को सेना लेकर गोगुंदा पर कब्जा करने भेजा, जो प्रताप की उस समय राजधानी थी. जब महाराणा को खबर मिली की मुगल सेना मांडल से आगे बढ़कर खगनौर तक पहुंच चुकी है तो वह खुद गोगुंदा से सेना लेकर पहला हमला करने चल उठे हल्दीघाटी के पास. जिसका नाम इसकी मिट्टी के रंग की वजह से पड़ा है. दोनों सेनाएं मिली. जंग में मानसिंह ने लगभग 10000 मुगल सैनिकों को 6 टुकड़ियों में बांटा था.
हरावल या वैनगार्ड में कच्छवाहा राजपूत और मध्य एशियाई मुगल थे. दाएं टुकड़ी में बरहा के सय्यद और बाई में गाजी खान बदख्शी के घुड़सवार तीरंदाज और सांभर के लाव लोकर्ण के सिपाही थे. इल्तमिश माधो सिंह के कमांड में थी. और केंद्र में खुद मानसिंह इंपीरियल गार्ड्स को एक हाथी पर बैठकर कमांड कर रहे थे. इसके अलावा मेहतर खान के हाथ में रियर गार्ड्स की कमान थी. वही महाराणा के करीब तीन से चार हजार घुड़सवारों को सेना के वैनगार्ड की कमांड रामदास राठौर, भीमसेन और हकीम खान सूर के हाथों में थी. दाई टुकड़ी ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर के अधीन थी और बाईं और बिदा झाला के.
राणा पूजा के भील तीरंदाज सबसे पीछे एक पल में थे और महाराणा खुद अपने घोड़े चेतक पर केंद्रीय दल का नेतृत्व कर रहे थे. कोई रेयर गार्ड रखने लायक संख्या उनकी सेना में थी ही नहीं. पहला हमला महाराणाके ने किया, और जोरदार किया. अग्रिम टुकड़िया मुगल सेना पर सीधी चढ़ गई और मुगल सेना की पंक्तियां टूट गईं. केवल सय्यद ही अपनी स्थिति को बनाए रख सके. वो भी झुकने ही वाले थे कि माधव सिंह के एडवांस रिजर्व ने उन्हें सही समय पर जरूरी सपोर्ट किया. गाजी खान के बचे हुए घुड़सवार भी सपोर्ट के लिए पहुंच गए. संकट को देखते हुए मानसिंह अपने इंपीरियल गार्ड्स को लेकर सीधा आगे आ गए.
इसके पीछे पीछे मेहतर खान रियल गार्ड्स को लेकर जा पहुंचा नगाड़े बजाते हुए .उससे पूरी मुगल सेना में यह भ्रम फैल गया कि अकबर खुद सेना लेकर पहुंच गया है और उनका मनोबल ऊंचा हो गया. महाराणा की सेना पर उसका उल्टा असर हुआ और जंग एक डेडलॉक में फंस गई. इस डेटलॉक को तोड़ने के लिए दोनों तरफ से हाथियों को उतारा गया और मुगलों का पहला भारी पड़ने लगा. फिर माधव सिंह से लड़ते-लड़ते महाराणा के ऊपर तीनों की बारिश होने लगी और वो घायल हो गए. 3 घंटे बीत चुके थे, अब महाराणा की सेना बैकफुट पर थी. मुगल तीन तरफ से उन्हें घेर चुके थे.
गंभीर परिस्थिति में झालाविदा ने महाराणा प्रताप की शाही छतरी या फिर मुकुट अपने सर ले लिया. उन्हें प्रताप समझकर मुगल सैनिक उनकी तरफ दौड़ चले गए, और महाराणा प्रताप को जंग से बाहर निकलने का मौका मिल गया .उनका जीवित रहना मेवाड़ के लिए बहुत जरूरी था क्योंकि आने वाले सालों में वह अपने मुल्क को लगभग पूरी तरह मुगलों से आजाद कर देंगे, पर आज वह दिन नहीं था.
उनकी और मेवाड़ की बची हुई सेना की रक्षा के लिए राणापूंजा की भील तीरंदाजी ने अपने प्राण दे दिए .भारी गर्मी या फिर महाराणा प्रताप के लिए इज्जत के चलते मानसिंह ने महाराणा का पीछा नहीं किया. हल्दीघाटी के युद्ध का सीधा-सीधा नतीजा कुछ नहीं निकला, पर मेवाड़ की सेना कमजोर हो चुकी थी. महाराणा को पता था कि अकबर फिर हमला करेगा.