Balraj Sahni: वो हीरो जो रिक्शावाले का रोल करने के लिए तपती सड़क पर रिक्शा चलाने की प्रैक्टिस करते थे

समाज की कड़वी हकीकत को पर्दे पर दिखाने के लिए सबसे ज़रूरी है कि कलाकार उस कड़वी हकीकत को समझता हो, उसे महसूस करता हो. भले ही वो ‘अभिनय’ कर रह हो लेकिन उसमें जान डालने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. हिन्दुस्तान की धरती पर एक ऐसा ही कलाकार पैदा हुआ, जो इस तथ्य को आत्मसात कर चुका था. आम आदमी को उसी की कहानी, उसी की ज़ुबानी दिखाने का टैलेंट था उसमें. हम बात कर रहे हैं ‘आम जनता के हीरो’ बलराज साहनी (Balraj Sahni) की.

रिक्शा वाला बनने के लिए नंगे पैर कई दिनों तक चलाया रिक्शा

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वो बलराज साहनी जो हीरो होते हुए भी गाड़ी में नहीं बल्कि आम जनता के करीब रहने के लिए, उन्हें समझने के लिए घंटों नकली मूंछ और प्लास्टिक वाली नाक लगाकर रेलवे स्टेशन पर बैठा रहता था. लोगों को चलते-फिरते देखता था, उनके हाव-भाव समझता था, उनकी बातों पर ग़ौर करता था.

हिन्दी सिनेमा की ‘कल्ट क्लासिक’ फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) में बलराज साहनी ने शंभू रिक्शेवाला का रोल किया. रिक्शे वाले का रोल करने से पहले भी बलराज साहनी ने काफ़ी रिसर्च और प्रैक्टिस की. ‘दो बीघा ज़मीन’ की शूटिंग कलकत्ता में हो रही थी. रिक्शेवाले का रोल करने से पहले बलराज साहनी एक रिक्शे वाले से मिले. वो कलकत्ता की एस्फ़ाल्ट की सड़कों पर घंटों तक नंगे पैर रिक्शा चलाते थे. उनके दोनों पैरों में छाले पड़ गए.

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अपनी आत्मकथा में बलराज साहनी ने लिखा, ‘मैंने एक्टिंग की थ्योरिज़ से ध्यान हटाया और इस अधेड़ उम्र के रिक्शे वाले की आत्मा समझने की कोशिश की. इसी वजह से मैं वो रोल सफ़लतापूर्वक निभा पाया. एक्टिंग की कोई किताब में मुझे वो ज्ञान नहीं मिल सकता जो मुझे उस निरक्षर गांववाले ने सिखाया. मैंने उस दिन ज़िन्दगी में एक बहुत ज़रूरी चीज़ सीखी, अगर किसी हीरो को सफ़लता पानी है तो रियल लाइफ़ कैरक्टर को रोल मॉडल बनाना होगा.’

इस कठिन तपस्या का  बलराज साहनी में आम जनता को बलराज साहनी नहीं दिखाई देता था, बल्कि एक किसान, एक रिक्शावाला, एक व्यापारी, एक काबुलीवाला, एक जासूस नज़र आता था.

गांधी जी से मिलने के बाद BBC जॉइन किया

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शुरुआती जीवन की बात करें तो बलराज साहनी का जन्म 1 मई, 1913 को पाकिस्तान में हुआ. लाहौर यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिट्रेचर में मास्टर्स डिग्री लेने के बाद वो परिवार के बिज़नेस में हाथ बंटाने के लिए रावलपिंडी गए. कुछ लेकों के अनुसार, 1938 में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई. इसके बाद वो BBC लंदन हिंदी में काम करने के लिए लंदन चले गए. 1943 में वो भारत लौटे.

एक्टिंग सफ़रनामा

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हिन्दुस्तान लौटकर बलराज साहनी इंडियन पीपल्स थियेटर एसोशिएशन (इप्टा) से जुड़े. गौरतलब है कि तब तक उनकी पत्नी दमयंती एक सफ़ल इप्टा कलाकार बन चुकी थीं. मुंबई में बलराज साहब ने अपने करियर की शुरुआत ‘इंसाफ़’ (1946) से की. इसके बाद के एक अब्बास की ‘धरती के लाल’ (1946) में भी नज़र आए. ये दमयंती की भी पहली फ़िल्म थी. बलराज साहब ने इसके बाद ‘गुड़िया’ (1947), ‘मालदार’ (1950), ‘हम लोग’ (1951), ‘बदनाम’ (1952), ‘राही’ (1953) जैसी कई फ़िल्में की लेकिन बलराज साहब नामक हीरे के जौहरी बने बिमल रॉय. ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) से दुनिया को पता चला का बलराज साहनी ‘आम जनता के हीरो’ हैं. 1954 में देश में पहली बार नेशनल अवॉर्ड्स दिए गए थे और इस फ़िल्म को बेसट फ़िल्म का खिताब मिला था. इस फ़िल्म को कान्स फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भी सम्मानित किया गया था. बिमल रॉय ने ‘हम लोग’ देखकर ही बलराज साहनी को फ़िल्म में लेने के मन बना लिया था. जब बलराज साहनी ने फ़िल्म साइन किया तब उनकी पूरी टीम इस निर्णय के खिलाफ़ थी क्योंकि इससे पहले उन्होंने ज़्यादातर ‘रईस किरदार’ ही निभाए थे.

तीन महीने तक जेल में रहकर की शूटिंग

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बलराज साहनी मार्कसवादी थे. 1951 में आई ‘हलचल’ में के आसिफ़ ने दिलीप कुमार के कहने पर बलराज साहनी को जेलर का किरदार दिया. बलराज साहनी जेलर का रोल समझने के लिए आर्थर रोड स्थित जेल के जेलर से मिलने भी जाते थे. फ़िल्म की तैयारियां चल रही थी और इसी दौरान बलराज साहनी एक जुलूस में हिस्सा लेने पहुंचे जहां हिंसा भड़क गई. बलराज साहनी भी धर लिए गए और तीन महीने की जेल हुई. शूंटिंग खत्म करने के लिए प्रोड्यूसर ने दरख्वास्त दी. तीन महीने तक हर सुबह बलराज साहनी जेल के कपड़ों में सेट पर पहुंचते, जेलर के कपड़े पहनकर शूटिंग करते और शाम में वापस जेल चले जाते.

साहित्य प्रेमी थी साहनी

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बलराज साहनी को सिर्फ़ अभिनेता के रूप में जानने वालों को उनके बारे में थोड़ा और शोध करने की ज़रूरत है. बलराज साहब को साहित्य से भी काफ़ी लगाव था. एक्टिंग की दुनिया में कदम रखने से पहले भी उन्हें साहित्य से प्रेम था और उम्र के आखिरी पड़ाव था ये प्रेम बरकरार रहा. उन्होंने अंग्रेज़ी, हिंदी और पंजाबी में कई किताबें लिखी. 1960 में पाकिस्तान के सफ़र के बाद उन्होंने ‘मेरा पाकिस्तानी सफरनामा’ नामक किताब लिखी. पंजाबी मैगज़ीन ‘प्रातीलारी’ में अक्सर उनके लेख छपते थे.

बलराज साहब ने स्क्रीनराइटिंग में भी अपनी प्रतिभा का जौहर दिखाया. 1951 में आई ‘बाज़ी’ में स्क्रीनराइटिंग का काम किया था बलराज साहनी ने. इस फ़िल्म में देव आनंद भी नज़र आए, फ़िल्म का निर्दशन गुरु दत्त साहब ने किया था.

मौत के बाद लाल झंडे के साथ हुई थी अंतिम यात्रा

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1972 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान बलराज साहनी ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया था. CPI ने इसका विरोध किया और बलराज साहब को पार्टी से निकाल दिया. बलराज साहब को ये खबर देने की ज़िम्मेदारी उनके कुछ करीबी दोस्तों को दी गई. कुछ दिन पहले ही बलराज साहब की बेटी शबनम की मौत हुई थी और वो इस गम से नहीं निकल पाए थे. तनाव ग्रसित बलराज साहब को हार्ट अटैक आया. अपने आखिरी पलों में उन्होंने अपनी पत्नी से दास कैपिटल मंगवाई और अपने तकिए के बगल में रखवाया. बलराज साहब की इच्छा थी कि उनके पार्थिव शरीर पर फूल न चढ़ाए जाए, न पंडित बुलाया जाए और न ही मंत्र पढ़े जाए. मार्क्सवादी होने के नाते उन्होंने इच्छा जताई थी कि उन्हें लाल झंडे में ही विदा किया जाए, परिजनों और दोस्तों ने उनकी इच्छा का मान रखा.

आजकल की जेनरेशन बलराज साहनी को इस गाने से ज़रूर पहचानती होगी- ‘ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं’

बलराज साहब ने अपनी आखिरी फ़िल्म ‘कड़वी हवा’ के रिलीज़ से पहले ही दुनिया को अलविदा कह दिया.