चुडेश्वर कलां मंच द्वारा इस अदृष्य डगेली नृत्य पर तैयार किया गया है काल्पनिक नृत्य

An imaginary dance has been prepared on this invisible Dageli dance by Chudeshwar Kala Manch

हिमाचल प्रदेश को पूरी दुनिया मे देव भूमि के नाम से जाना जाता है प्रदेश मे अनेको ऐसी परंपराऐ ,रिति रिवाज ,प्रथाऐ ,व त्यौहार है जो बडी आस्था के साथ मनाये जाते है इन्ही मे से डगैली पर्व व अदृष्य नृत्य भी एक है जो शायद हिमाचल प्रदेश के सिरमौर ,शिमला ,मंडी ,सोलन ,कुल्लू आदि के ग्रामीण क्षैत्रो को छोड कर शायद कही और नही मनाया जाता डगैली व इसके अदृष्य नृत्य का अर्थ है डायनो का पर्व या अदृष्य नृत्य इसे यहा डर के कारण या आस्था के कारण क्यू मनाया जाता है इसका कोई स्पष्ट प्रमाण देखने को नही मिलता और अलग अलग क्षेत्रो मे अलग अलग समय यह पर्व मनाया जाता है यह पर्व परंपरा है या पर्व इसके पीछे कोई भी पुख्ता प्रमाण नही मिलते फिर भी यह पर्व यहा से आज के आधुनिक समय मे मनाया जाता है । कुछ क्षेत्रो मे यह डरवना पर्व श्री कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि को तथा कुछ क्षेत्रो मे इसके ठीक पांच से आठ दिनो के बाद भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी व चौदस के दिन मनाया जाता है । डगैली का हिदी अर्थ है डायनो का पर्व ऐसा माना जाता है इन दोनों रात्रियो को डायने ,भूत ,पिशाच खुला आवा गमन तथा नृत्य करते है इस नृत्य को कोई आम आदमी नही देख सकता इसे केवल तांत्रिक तथा देवताओ के गुर यानि घणिता ही देख सकते है इस दिनो डायनो व भूत प्रेतो को खुली छूट होती है वह किसी भी आदमी व पशु आदि को अपना शिकार बना सकती है इसके लिए लोग पहले ही यहां अपने बचने का पूरा प्रंबध यानि सुरक्षा चक्र बना कर रख लेते है । इन सुरक्षा प्रबंधो की तैयारियां यहा पर रक्षा बंधन वाले दिन से आरभं हो जाती है रंक्षा बंधन वाले दिन जो रंक्षा सूत्रो पुरोहितो द्वारा अपने यजमानो को बाधां जाता है । उसे डगैली पर्व के बाद ही खोला जाता है इसके साथ साथ उसी दिन पुरोहित द्वारा अभिमंत्रित करके दिये गये चावलो या सरसो के दानो के साथ साथ अपने कुल देवता के गुर द्वारा दिये गये रक्षा के चावल व सरसों के दानो को डगैली पर्व से ठीक पहले अपने घरो ,पशुशालाओ व खेतो मे छिडक दिया जाता है । ताकि उनको घरो मे परिवार के सभी सदस्यो पशु शाला मे पशुऔ व खेतो मे फसलो को डायने किसी प्रकार का नुकसान ना पंहुचा सके इसके अलावा भेखल व तिरमल की झाडी की टहनियो को दरवाजे व खिडकीयो मे लगाया जाता है पहली डगैली की रात्रि को सोने से पहले दरवाजे पर खीरा यानि काकडी की बलि व दूसरी डगैली की रात्रि को अरबी के पतो से बने व्यंजन पतीड जिसे स्थानीय भाषा मे धिधडे भी कहा जाता है की बलि दी जाती है ताकि बूरी शक्तिया उनके घरो मे प्रवेश ना कर सके आज के आधुनिक व वैज्ञानिक युग मे ऐसे त्यौहारो व प्रथाओ पर विश्वास करना कठिन है मगर यहा यह पर्व आस्था या फिर डर किस कारण से मनाया जाता है इसके पीछे कोई ठोस प्रमाण नही मिलता फिर भी इस पर्व को सैकडो सालो से मनाया जाता है इस पर्व पर चुडेश्वर कला मंच जागल द्वारा शौध कार्य किया गया चुडेश्वर कला मंच के संस्थापक जोगेद्र हाब्बी ने विषेश भेट कहा कि उनकी मंच के पदम श्री विद्या नंद सरैक व गोपाल हाब्बी ने शौध कार्य किया है और सोलन शिमला व सिरमौर के ग्रामीण क्षेत्रो मे लोगो से वार्तालाप किया और उसी आधार पर डगैली गीत व डगैली परिधान तैयार किये परिधानों को तैयार करने ने प्रसिद्ध शौध कर्ता गोपाल हाब्बी ने अहम भुमिका निभाई और उसके बाद शौद के आधार पर इसका मंचन किया । हाब्बी का कहना है कि इस शौध कार्य के पीछे उनका मकसद समाज में अंध विश्वास फैलाना नही बल्कि हमारी प्राचीन पंरपरा को लुप्त होने से बचाना है । और अपने देव पंरपरा का संरक्षण एवं संवर्धन करना है इसी उद्देश्य से उन्होंने इस पर शौध कार्य किया और जो शौध कार्य में सामने आया उसी से यह काल्पनिक नृत्य तैयार किया गया है ।