1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान एक ऐसा पल आया, जब पाकिस्तानी सेना ने उस समय के अपराजेय माने जाने वाले ‘अमेरिकन पैटन टैंकों’ को भारतीय सेना के खिलाफ मैदान-ए-जंग में उतार दिया. ‘खेमकरण’ सेक्टर के ‘असल उताड़’ गांव में इसकी मदद से गोलाबारी शुरू कर दी.
इन टैंकों का सामना करना उस समय भारतीय जवानों के लिए एक बड़ी चुनौती थी. दरअसल, भारतीय सैनिकों के पास उस समय न तो टैंक थे, और नहीं बड़े हथियार. उन्हें ‘थ्री नॉट थ्री रायफल’ और एल.एम.जी. जैसी बंदूकों की मदद से ही विरोधियों के पैटन टैंकों को जवाब देना था.
ऐसी स्थिति में एक भारतीय जवान अपनी ‘गन माउनटेड जीप’ के साथ मैदान-ए-जंग में उतरा और एक-एक करके पाकिस्तानी सेना के एक के बाद एक 7 पैटनटैंक उड़ा दिए. यह भारतीय जवान कोई और नहीं कम्पनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद थे. वही अब्दुल हमीद, जिन्हें अपनी वीरता के लिए मरणोपरांत सेना के सबसे बड़े सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
यूपी के गाजीपुर में पैदा हुए थे अब्दुल हमीद
अब्दुल हमीद का जन्म 1 जुलाई 1933 को उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर के धामूपुर गांव में सकीना बेगम और मोहम्मद उस्मान के घर हुआ था. अब्दुल के पिता पेशे से एक दर्जी थे.
लिहाज़ा वह अक्सर कपड़े सिलने में अपने पिता की मदद करते थे. हालांकि, इस काम में उनका ज्यादा मन नहीं लगता था. उनकी रूचि पहलवानी में ज्यादा थी. आसपास के इलाके में होने वाली कुश्ती में वह अक्सर भाग लेते थे. दूर-दूर तक उनकी बहादुरी के किस्से आम थे.
उनके बचपन के दो किस्से खासे मशहूर हैं
पहले किस्से में वह एक दिन वह अपने गांव के एक चबूतरे में बैठे थे. तभी एक लड़के ने आकर उसे बताया कि गांव के कुछ दंबग लोग जबरदस्ती उसकी फसल काटने रहे हैं. इस पर अब्दुल तुरंत मदद के लिए तैयार हो गए और उसकी युवक की मदद करते हुए दबंग लोगों को न सिर्फ़ विरोध किया, बल्कि उन्हें भागने पर मज़बूर भी किया. इसी तरह दूसरे किस्से में उन्होंने बाढ़ के पानी में डूबती दो लड़कियों की जान बचाकर इंसानियत की अनोखी मिसाल कायम की थी.
20 साल के थे, जब अब्दुल सेना का हिस्सा बने थे
हामिद 20 साल के थे, जब वह 27 दिसंबर 1954 को भारतीय सेना के ग्रेनेडियर रेजीमेंट में भर्ती हुए. वहां से अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद वह साल 1955 में वो 4 ग्रेनेडियर्स बटालियन में तैनात हुए. शुरुआत में वह एक राइफल कंपनी का हिस्सा थे. यह वह दौर था, जब पाकिस्तान लगातार भारत के अंदर घुसपैठ की कोशिश कर रहा था. अब्दुल को पाकिस्तान से दो-दो हाथ करने का मौका मिलता. इससे पहले 1962 में चीन ने भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था.
इस युद्ध के दौरान अब्दुल सातवीं इंफैन्ट्री ब्रिगेड का हिस्सा बने थे. उनकी बटालियन ने नमका-छू के युद्ध में चीनी सेना से लोहा लिया था. फिर आया साल 1965. अब्दुल ने भारतीय सेना में करीब दस साल की सेवा पूरी कर ली थी और छुट्टी पर अपने घर गए थे. इसी बीच सीमा पर हालत गंभीर हुए तो उन्हें तत्काल वापस लौटने के आदेश मिला.
कहते हैं, अपनी पोस्ट पर वापस लौटने के लिए वह अपना बिस्तरबंद बांध ही रहे थे कि उनकी रस्सी टूट गई. यह देखकर उनकी पत्नी रसूलन बीबी उनके पास आई और इसे अपशकुन बताते हुए न जाने की विनती की. मगर अब्दुल नहीं माने और अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले.
वैसे अब्दुल की मुसीबत यही खत्म नहीं हुई थी. वह घर से कुछ दूर निकले ही थे कि उनकी साइकिल की चैन टूट गई. इस पर साथियों ने भी उनसे न जाने की बात कही. मगर इस बार भी अब्दुल नहीं रुके. वह जब तक अपनी पोस्ट पर पहुंचते हालात बिगड़ चुके थे.
‘असल उताड़’ की लड़ाई दुश्मन के 7 टैंक उड़ाए
विरोधियों ने अपने नापाक कदम अमृतसर की ओर बढ़ाने शुरु कर दिए थे. उन्हें रोकने के लिए अब्दुल पंजाब के तरनतारण जिले के खेमकरण सेक्टर में तैनात थे. 1965 के युद्ध में अब्दुल 4 वें ग्रेनेडियर्स में सेवा दे रहे थे. उन्हें ‘असल उताड़’ के गांव को विरोधियों से बचाना की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.
पाकिस्तानी सेना लगातार उनकी पोस्ट पर हमले कर रही थी. मगर उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी. जानकारी के मुताबिक 8 सितंबर की सुबह अब्दुल को चीमा गांव के आसपास विरोधी टैंकों की हलचल दिखी. अब्दुल को समझ आ रहा था कि अगर विरोधियों के टैंकों को नहीं रोका गया तो जंग मुश्किल होगी. लिहाज़ा, वह अपनी ‘गन माउनटेड जीप’ के साथ गन्ने के खेत में छिप गए.
विरोधी को इसकी ख़बर बिल्कुल नहीं थी. वह बेफिक्र होकर आगे बढ़ते रहे. इधर अब्दुल उनके टैंकों को अपनी बंदूक की रेंज में आने का इंतजार कर रहे थे. जैसे ही विरोधी उनके दायरे में आया उन्होंने एक-एक करके दुश्मन के चार पैटन टैंकों उड़ा दिए. अब्दुल ने जिन टैंकों को उड़ाया था, वो कोई आम टैंक नहीं थे. वो अमेरिकन पैटन टैंक थे, जिन्हें उस दौर में अपराजेय माना जाता था.
अपनी किताब ‘वॉर डिस्पेचेज़’ में हरबख़्श सिंह लिखते हैं कि हमीद ने पहले दिन विरोधी के चार टैंकों को उड़ाया था. बाद में जब उन्हें ख़बर मिली कि उनका नाम परमवीर चक्र के लिए भेजा जा रहा है, तो वह उत्साहित हो गए और 10 सितंबर को तीन और टैंकों को अपना निशाना बनाया. अब उनके निशाने पर 8 वां टैंक था. उन्होंने उस पर फायर की ही थी कि दुश्मन ने उन्हें टारगेट कर लिया और अब्दुल मृत्यु को प्यारे हो गए.
मरणोपरांत अब्दुल हमीद परमवीर चक्र से सम्मानित हुए
मरणोपरांत अब्दुल को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. इसके अलावा साल 2000 में भारतीय डाक विभाग ने एक डाक टिकट जारी किया था, जिसमें अब्दुल हामिद की तस्वीर को जगह दी गई थी. अब्दुल अपनी पूरी लड़ाई जिस तरह से लड़े. वह दर्शाता है कि जंग के लिए हथियारों से ज्यादा हौंसलों की जरुरत होती है.