Jim Corbett: पहले बाघ का शिकार किया, फिर उनसे दोस्ती हुई और बाद में उन्हीं का संरक्षक बन गया

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आज हम आपके लिए लेकर आए हैं एक ऐसे शख्स की कहानी, जो हिंदुस्तानी तो नहीं था मगर उसकी आत्मा में हिंदुस्तान समाया हुआ था. जिसका बचपन जंगल की गोद में बीता और जवानी बाघों का शिकार करते हुए बीती. दिलचस्प बात यह कि शिकारी होने के बावजूद उसने इंसानों और जानवरों को एक नज़र से देखा. उसने आदमखोरों से नफरत करने की बजाए ये जानना जरूरी समझा कि आखिर ये आदमखोर हुए क्यों? यह कहानी जिम कॉर्बेट ( Jim Corbett ) उर्फ कारपेट साहब की है.

कौन थे Jim Corbett उर्फ कारपेट साहब?

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भारत को आज़ाद हुए अभी कुछ समय ही हुआ था. राम सिंह नेगी जो एक भारतीय था, वो नैनीताल के कालाढूंगी से एक गोरे अंग्रेज़ और उसकी बहन को लखनऊ स्टेशन पर छोड़ने आया था. यहां से अंग्रेज को बंबई जाना था और उसके बाद फिर केन्या. गाड़ी चढ़ने से पहले अंग्रेज ने राम सिंह को गले लगा लिया और राम सिंह एक बच्चे की तरह फूट फूट कर रोने लगे.

अजीब है ना! जिन गोरों को भगाने के लिए इतने लोग शहीद हो गये उस गोरे के जाने पर एक भारतीय का इस तरह से रोना. ये खैर है कि कालाढूंगी के अन्य लोगों को इस अंग्रेज के जाने की खबर नहीं मिली थी. वर्ना रोने वालों में सिर्फ राम सिंह का नाम नहीं होता, बल्कि इस अंग्रेज की विदाई पर पूरा गांव रो रहा होता.

असल में इस अंग्रेज को अंग्रेज कहना ही नहीं चाहिए. ये तो एक सच्चा हिंदुस्तानी था, जिसके पूर्वज तीन पीढ़ियों पहले आयरलैंड की खुबसूरती को छोड़ भारत आकर बस गये थे. 25 जुलाई 1875 को यहीं भारत के नैनीताल में इस आयरिश (आम लोगों के लिए अंग्रेज) का जन्म हुआ. जंगलों में तीर कमान चलाते हुए इसका बचपन बीता. नाम था जेम्स एडवर्ड कॉर्बेट. बाद में यह जिम कॉर्बेट के नाम से जाने गए.

Jim Corbett, कारपेट साहेब कैसे बन गए?

Jim Corbett Jim Corbett National Park

जिम कॉर्बेट को स्थानीयों लोग कारपेट साहेब के नाम से बुलाते थे. कुछ लोग तो इन्हें गोरा साधू भी कहते थे. अंग्रेजी लेखक मार्टिन बूथ ने जिम कॉर्बेट की जीवनी लिखी है. उन्होंने इस किताब का शीर्षक रखा ‘कारपेट साहिब’. अब आप समझ सकते हैं कि जिम कॉर्बेट इस नाम से कितने मशहूर रहे होंगे. ये नाम ऐसे ही नहीं पड़ा, बल्कि इसके पीछे वजह थी. शेर सिंह नेगी कॉर्बेट के शिकार सहयोगी थे.

वह तथा उनके अन्य साथी जिम कॉर्बेट को कारपेट साहब ही कहते थे. उनके द्वारा लिया जाने वाला ये नाम धीरे धीरे सब लोगों के लिए आम हो गया और इस तरह जिम कॉर्बेट हो गये कारपेट साहब. शेर सिंह नेगी कॉर्बेट के काफ़ी करीब थे . तभी तो जब वह केन्या जाने लगे तो उन्होंने अपनी बंदूक भेंट स्वरूप शेर सिंह को दे दी. कॉर्बेट की दी हुई वह बंदूक आज भी उनकी याद के रूप में शेर सिंह के परिवार के पास है.

कॉर्बेट जब मात्र 6 साल के थे, तब इनके सिर से पिता का साया उठ गया. इनका बचपन कालाढूंगी के जंगल में तीर और गुलेल से शिकार करने का अभ्यास करते हुए बिता. पढ़ाई इन्होंने नैनीताल से की लेकिन ज़्यादा पढ़े नहीं क्योंकि किताबों से सर मारना पसंद नहीं था इन्हें. यही कोई 18-19 साल की उमर रही होगी जब कॉर्बेट पढ़ाई छोड़ कर बंगाल एंड नार्थ वेस्टर्न रेलवे में फ्यूल इंस्पेक्टर के तौर पर भर्ती हो गए.

ज़्यादातर लोगों के लिए कॉर्बेट एक शिकार और जंगल से जुड़े इंसान के रूप में जानते हैं लेकिन उनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा रेलवे से भी जुड़ा हुआ है. वह 20 साल तक रेलवे से जुड़े रहे और इसी दौरान उनके अंदर हिंदुस्तान ने पूरी तरह से घर कर लिया. जिम कॉर्बेट की 6 किताबों में से एक किताब है माय इंडिया. इस किताब में उनके रेलवे जीवन से जुड़े कई किस्से हैं. यह किताब बताती है कि कॉर्बेट हिंदुस्तान और यहां के लोगों से कितनी मोहब्बत करते थे. बाद में वह फ्यूल इंस्पेक्टर की नौकरी छोड़ कर रेलवे ठेकेदारी के काम में आ गये थे और यहीं उनकी मुलाकत ऐसे ऐसे लोगों से हुई जिन्हें वह कभी भुला नहीं सके.

शिकारी के रूप में मशहूर हुए Jim Corbett

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कॉर्बेट अपने समय के सबसे मशहूर शिकारियों में से थे. कहीं भी अगर कोई आदमखोर जनवर अपना प्रकोप दिखता तो वहां के लोग कॉर्बेट को चिट्ठी लिख कर उनसे मदद मांगते. चिट्ठी लिखने वालों को कॉर्बेट पर इतना भरोसा होता कि वो ये सोच कर निश्चिंत हो जाते कि कॉर्बेट ज़रूर आएंगे. होता भी ऐसा ही. कार्बेट के शिकार करने का तरीका भी तो अलग था. वह शौक़ के लिए शिकार नहीं करते थे.

वह सिर्फ आदमख़ोर जानवरों का शिकार करते और शिकार से पहले इस बात की पुष्टि कर लेते कि जानवर सच में आदमख़ोर है या नहीं. कॉर्बेट ने 1907 से 1938 तक शिकार किया. इस बीच उन्होंने चंपावत बाघिन, चावगढ़ बाघिन, पनार चीता, रुद्रप्रयाग का आदमखोर चीता, मोहन आदमखोर चीता, ठक आदमखोर चीता और चूका बाघिन सहित 31 बाघ और चीतों का शिकार किया. इनके साथ कुछ विवाद भी जुड़े जब यह आरोप लगाया गया कि इन्होंने बाघिन के साथ उसके निर्दोष बच्चों को भी मारा है. चाहे जो भी विवाद हो लेकिन ये बात सच है कि कॉर्बेट ने कई लोगों को आदमखोर जानवरों के खौफ से आज़ाद कराया.

उनके शिकार का यह उदाहरण हमेशा चर्चा में रहा. नेपाल सीमा पार कर एक बाघिन कुमाऊं में प्रवेश कर गई थी. नेपाल में इसने 234 लोगों को अपना शिकार बनाया था और कुमाऊं आने के बाद इसका शिकार हुए इंसानों की संख्या 436 हो गई थी. आखिरी शिकार जो इस बाघिन ने किया था वो एक 16 साल की लड़की थी. इस आदमखोर बाघिन को मारने के लिए कार्बेट को बुलाया गया. कार्बेट ने कुछ शर्तें रखीं.

जैसे कि उन्होंने सबसे पहले उस बाघिन के ऊपर रखा इनाम हटाने को कहा. इसके अलावा अन्य सभी शिकारियों को जंगल से वापस बुलाने की मांग की. उनकी बातें मान ली गईं. इसके बाद कॉर्बेट दो तीन सहयोगियों के साथ उस आदमखोर बाघिन के शिकार पर निकल पड़े. कुछ महीनों के इंतज़ार के बाद एक रोज़ कॉर्बेट ने उस बाघिन को अपनी गोली के निशाने पर ले ही लिया और इसी के साथ उसका खेल खत्म कर दिया.

कॉर्बेट के शिकार के ऐसे कई किस्से हैं, जो उन्होंने अपनी किताब में दर्ज किए हैं. वह जहां पहुंच जाते थे वहां के लोग ये सोच कर निश्चिंत हो जाते कि अब तो आदमखोर जानवर का अंत आया समझो.

कैसे शिकारी से बाघों के मसीहा बने Corbett?

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जिम कॉर्बेट की हमेशा से एक आदत रही थी कि वह सिर्फ आदमखोरों का शिकार ही नहीं करते थे, बल्कि उनके शरीर और स्वभाव पर अध्ययन भी करते थे. इसी तरह जब उन्होंने एक आदमखोर बाघिन के शरीर को गौर से देखा तो पाया कि उसके चेहरे और शरीर पर गोली तथा अन्य हथियारों के निशान मौजूद हैं. इस अध्ययन के बाद कॉर्बेट ये जान पाए कि इस बाघिन के जबड़े पर गोली मारी गई थी.

कॉर्बेट ने ये बात समझी कि बेवजह ये जानवर आदमखोर नहीं बनते बल्कि जब इंसान इन पर हमला करता है तो ये इंसानों से चिढ़ने लगते हैं और उनका शिकार शुरू करते हैं. गहन अध्ययन के बाद कॉर्बेट इस नतीजे पर पहुंचे कि इंसानों को बाघ चीतों से बचाने से ज़्यादा जरूरी है इन जानवरों को इंसानों से बचाना. इसके बाद से ही कॉर्बेट बाघ और चीतों को बचाने के अभियान में जुट गए.

ऐसे ही अध्ययन करते हुए कार्बेट ने लोगों के सामने बाघों और तेंदुए के बीच के फर्क को भी उजागर किया. उन्होंने बताया कि बाग़ जब आदमखोर हो जाता है तो उसके मन से इंसानों का डर जाता रहता है. यही कारण है कि वे दिन में भी हमला करते हैं. वहीं तेंदुए कितने भी आदमखोर क्यों ना हो जाएं मगर इंसान का डर उनके अंदर बराबर बना रहता है. इसीलिए वे रात के अंधेरे में शिकार करते हैं.

यही कारण है कि तेंदुओं के मुकाबले बाघों का शिकार करना ज़्यादा आसान होता है.कॉर्बेट के लिए बाघ कोई जानवर नहीं, बल्कि जेंटलमैन था. वह उन्हें बड़े दिल वाला सज्जन कह कर संबोधित करते थे. उनका मानना था कि बाघ को अगर आप कुछ नहीं कहेंगे तो उसे आपसे कोई मतलब नहीं रहेगा. कॉर्बेट ये बातें यूं ही नहीं कहते थे, बल्कि ये सब उन्होंने निजी अनुभव से सीखा है.

इन बातों का ज़िक्र कार्बेट ने अपनी किताब ‘मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊं’ में किया है. इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वो शिकार के दौरान रात को जब जंगल में सोया करते थे तो अपने पास कुछ लकड़ियां जला लेते. फिर अचानक रात को बाघ के दहाड़ने से जब उनकी आंख खुलती तो वो फिर से लकड़ियां जला कर बेफ़िक्र हो कर सो जाते.

बाघों से लेकर इंसानों तक के लिए रहे रहम दिल

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कार्बेट कहते थे कि जंगल के पास रहने वाले लोगों का दिन में अधिकांश समय जंगल में बीतता है. ऐसे में क्या जंगल के राजा की नज़र उन पर ना पड़ती होगी? लेकिन वे बिना मतलब किसी को कुछ नहीं कहते. ऐसी ही एक और घटना का ज़िक्र उन्होंने किताब में किया है. एक बार वह जंगली मुर्ग़ियों का पीछा करते हुए जंगल में कुछ दूर निकल गये.

इसी दौरान कॉर्बेट का एक बाघ से सामना हुआ. कॉर्बेट चुपचाप खड़े रहे. बाग़ ने उन्हें देखा और फिर मुड़कर धीरे-धीरे अपने रास्ते चल दिया. यही वजह थी कि कॉर्बेट हमेशा बाघों को बेरहम और क्रूर कहे जाने पर एतराज़ करते थे. वे कहते थे उनके सामने कभी कोई ऐसा मामला नहीं आया, जब किसी बाघ ने बेमतलब ही किसी इंसान को नुक्सान पहुंचाया हो.

कॉर्बेट की बाघों के लिए चिंता इतनी ज़्यादा थी कि उन्होंने इनकी घटती आबादी संभालने के लिए अपने प्रयासों से 8 अगस्त 1936 को पहले नेशनल पार्क की स्थापना करवाई. इसे हली नेशनल पार्क नाम दिया गया लेकिन 1952 में इस पार्क का नाम बदल कर जिम कार्बेट के नाम पर रखा गया जिसे लोग आज जिम कार्बेट नेशनल पार्क के नाम से जानते हैं.

कॉर्बेट सिर्फ जानवरों के प्रति ही उदार नहीं थे बल्कि इंसानों के लिए भी वह इतने ही रहम दिल थे. अपने रेलवे ठेकेदारी के दिनों में कॉर्बेट ने मोकमा के एक स्टेशन मास्टर रामसरन के साथ मिल कर उन मजदूरों के बच्चों के लिए स्कूल खुलवाया था जो पैसे की तंगी के कारण अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते थे. इसी दौरान उनका रिश्ता उस चमारी नामक व्यक्ति से जुड़ा जिसे याद कर के कॉर्बेट हमेशा रो पड़ते थे.

वो कहते थे मरने के बाद मैं वहां जाऊंगा जहां चमारी गया है और उससे मिलूंगा. कॉर्बेट को जो राम सिंह नेगी लखनऊ छोड़ने आया था उसके नाम उन्होंने अपनी कालाढूंगी की ज़मीन लिख दी थी. साथ ही साथ जब वो देश छोड़ कर केन्या गये थे तो जिस बैंक में उनका खाता था उन्हें एक चिट्ठी दे गये कि हर महीने उनके खाते से राम सिंह को 10 रुपये दिए जाएं. जब तक कॉर्बेट ज़िंदा रहे तब तक राम सिंह को उनके रुपये मिलते रहे.

भारत के गरीबों के प्रति कॉर्बेट कितने उदार थे और हिंदुस्तान उनके लिए क्या मायने रखता था ये जानने के लिए उनकी लिखी किताब माय इंडिया पढ़ी जानी चाहिए.

Jim Corbett ने आखिर क्यों छोड़ा था देश

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यह बात सोचने वाली है कि कॉर्बेट केन्या में अपने अंतिम दिन बिताते हुए वो जिस भारत देश को अपना देश कह कर याद करते रहे भला वो उस देश को छोड़ कर क्यों चले गये. भले ही कॉर्बेट की देह को केन्या की न्येरी नदी के पास दफनाया गया हो लेकिन उनकी आत्मा तो यहीं हिंदुस्तान की छोटी हल्द्वानी में बस गई थी. वो कभी देश छोड़ कर गई ही नहीं.

केन्या के लोग जिन्होंने कॉर्बेट को करीब से देखा था वे कहते थे कि कॉर्बेट को देख कर ऐसा लगता था मानों वो सिर्फ अपनी किताब पूरी करने के लिए ज़िंदा हैं. भारत से इतना प्रेम करने वाले कॉर्बेट आखिर इस मिट्टी को छोड़ कर क्यों चले गये होंगे? इसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं. एक कारण ये था कि उनके दिल में ये बात घर कर गई थी कि भले ही वो इसी देश की मिट्टी में पैदा हुए हों लेकिन आखिरकार वो हैं तो एक अंग्रेज ही.

आज़ादी के बाद क्या लोग उन्हें उस नज़र से देखेंगे जिस नज़र से उन्हें पहले देखा जाता रहा है. इसके अलावा कॉर्बेट के मन में भारतीय लोगों का जंगल के प्रति बदलता नज़रिया भी उनके दुख का कारण था. जंगल काट कर खेत बनाए जा रहे थे. जंगलों में मोटर गाड़ियों के लिए रास्ते बना दिए गये थे, जिससे जंगली जानवरों का जीवन प्रभावित हुआ. इन सबसे पहले कॉर्बेट उस आग से बहुत दुखी हुए जो 1932 में बसंत के महीने में जंगलों में लगाई गई थी. जंगल की आग का ये आसमान को छूता ये धुआं उन्हें अपने अरमानों के जलने के बाद उठने वाले धुएं के समान प्रतीत हुआ.

वह देख रहे थे कि भारत अपनी धरोहर नहीं संभाल पा रहा. यहां के नेताओं को ना जंगल की फिक्र है ना जंगली जानवरों की. बाघों के संरक्षण के संबंध में वह कहते थे कि भारत के नेताओं को बाघों को बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं क्यों कि ये वोट नहीं देते लेकिन जो इन्हें मारते हैं वो वोट ज़रूर देते हैं.

6 किताबों में बंद है Jim Corbett की कहानी

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कॉर्बेट ने अपनी ज़िंदगी को उन 6 किताबों में सहेज दिया जो उन्होंने लिखीं. कॉर्बेट ने 1943 में अपनी पहली किताब जंगल स्टोरीज़ के नाम से छपवाने के लिए ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी भेजी, लेकिन वहां उनकी किताब का नाम बदल कर मैन इटर्स ऑफ़ कुमाऊं रख दिया गया. इसी तरह 1948 में उनकी दूसरी किताब आई ‘मैन इटर्स लेपर्ड ऑफ़ रुद्रप्रयाग’, फिर 1952 में आई माय इंडिया प्रकाशित हुई.

उनकी छठी और अंतिम ट्री टॉप्स उनके निधन के बाद प्रकाशित हुई. 19 अप्रैल 1955 को कार्बेट अपने गांव कालाढूंगी को, केन्या के अपने ट्री हाउस को, अपने चीतों और बाघों को छोड़ कर इस दुनिया से चले गये. उनके निधन के 18 साल बाद उतराखण्ड के रामनगर स्थित जिम कर्बेट नेशनल पार्क में बाघों को बचाने के लिए प्रोजेक्ट टाईगर शुरू हुआ.

यकीनन आज भी यहां के बाघ अपने बच्चों को ये ज़रूर बताते होंगे कि एक गोरा भारतीय था जिसने हम आदमखोरों को बचाने के बहुत प्रयास किए थे,