भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। किन्नौर जिला के यूला गांव में भी जन्माष्टमी पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यूला गांव में से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर 12778 फीट की ऊंचाई पर एक सुन्दर तालाब के मध्य भगवान श्री कृष्ण का मन्दिर विराजमान है।
मान्यता है कि इस पवित्र तालाब में विराजमान सुन्दर मन्दिर का निर्माण महाभारत काल में पांडवों द्वारा वनवास एवं अज्ञातवास काल के दौरान किया था। मन्दिर के लगभग एक किलोमीटर नीचे की ओर “कासौरंग” नामक स्थान पर भीमकुंड है, जिसे स्थानीय निवासी लामठु सौरंग के नाम से जानते है। मन्दिर के ऊपर की ओर एक जगह जलधारा लिखा हुआ है जिसे स्थानीय निवासी “चेशित ती” के नाम से जानते है। यह लिखा हुआ (चेशित ती ) तीथंग नामक स्थान पर बहती हुई मन्दिर की ओर जाती है।
जनश्रुति यह है कि जब श्री कृष्ण ने बांसुरी बजाई तो यह जलधारा नृत्य करती हुई मन्दिर की ओर गई। जहां सुन्दर पवित्र तालाब का निर्माण हुआ। मान्यता यह भी है कि इस जलधारा (चेशित ती) में श्रद्धालु किन्नौरी टोपी बहाकर अपना भविष्य जानते हैं। अगर टोपी उलट-पलट गई तो उस श्रद्धालु का आने वाला साल अशुभ माना जाता है और अगर टोपी सीधा बिना उलट-पुलट के अन्तिम छोर तक गई तो उसका आने वाला साल बहुत ही शुभ माना जाता है। अशुभ की स्थिति में श्रद्धालु पुनः श्री कृष्ण मन्दिर जाकर प्रार्थना एवं क्षमा याचना करते हैं, जिससे अशुभ संकेत भी शुभ स्थिति में परिवर्तित हो जाते है।
मन्दिर के उत्तर-पूर्व में स्थित “रोरा खास” है जहां पांडवों द्वारा धान की खेती के प्रमाण देखे जा सकते हैं। रोरा खास के आर-पार दो ऊंचे पर्वत है जिसे स्थानीय निवासी चिकिम-मुकिम के नाम से जानते हैं। जनश्रुति यह है कि “मुकिम’ पर्वत बहुत ही शांत एवं सुन्दर है तथा रात्रि में सच्ची आस्था व श्रद्धा द्वारा इस पर्वत पर जगमगाती रोशनी देखी जा सकती है तथा हंसते-खेलते आवाजें सुनाई देती है। इस पर्वत को स्थानीय निवासी “स्वर्ग” के नाम से जानते हैं। दूसरी “चिकिम” नामक पर्वत है जोकि बहुत ही ठंडी एवं दुर्गम है जिसे स्थानीय निवासी “नरक” के नाम से जानते हैं।
यूला कांडा में मनाए जाने वाले जिला स्तरीय जन्माष्टमी के एक दिन पूर्व (इस वर्ष 6 सितंबर) को लगभग 10:00 अपराह्न समय पर स्थानीय निवासी एवं बौद्ध लामा तथा अन्य श्रद्धालुगण पूर्ण रीति-रिवाजों के साथ यूला कांडा के लिए बस यात्रा शुरू करते हैं। ग्राम वासियों के साथ बौद्ध लामा एवं समस्त श्रद्धालुगण सांस्कृतिक एवं परम्परागत लोकगीतों, बौद्ध मंत्रों, संपूर्ण समस्त क्षेत्रों, देवी-देवताओं, अपसराओं, भगवान श्री कृष्ण का बखान व भक्ति गीतों के साथ लगभग 12 किलोमीटर की यात्रा करते हुए सांय लगभग छः बजे पूर्वाहन सराय भवन पहुंचते हैं।
सभी श्रद्धालु सराय भवन तथा आस-पास टेटों एवं गुफाओं में रात्रि विश्राम करते हैं, जहां पर यूला भागवत कमेटी द्वारा रात्रि भंडारे की व्यवस्था होती है। रात्रि भोजन के पश्चात् सारी रात भजन-कीर्तन चलता है तथा सुबह लगभग 4:00 बजे जन्माष्टमी पूजा का प्रसाद बनाया जाता है। प्रात: लगभग सात-आठ बजे समस्त श्रद्धालु परंपरागत एवं लोक भक्ति गीतों के साथ सराय भवन से श्री कृष्ण मन्दिर की ओर प्रस्थान करते हैं।
तत्पश्चात् सबसे पहले समस्त श्रद्धालु भगवान श्री कृष्ण की पूजा अर्चना करते हैं तथा कुछ श्रद्धालु आस-पास मखमल पास पर बैठकर ध्यान करते हैं। पूजा अर्चना के पश्चात् भगवान श्री कृष्ण का प्रसाद ग्रहण करते हैं। दोपहर के समय वहां पर लोकगीतों के साथ पारंपरिक मेला का आयोजन होता है। लगभग तीन- चार बजे पूर्वाहन सभी श्रद्धालु भगवान श्री कृष्ण का आशीर्वाद पाकर पारंपरिक लोकगीतों एवं मस्ती के साथ वापस अपने-अपने गंतव्य की ओर लौटते हैं। श्रद्धालुओं के लिए यूला कांडा रास्ते में “यूलडग” के पास ग्रामीणों के लिए भंडारे का उचित व्यवस्था भी होती है।