शिक्षकों के जुनून और जज़्बे की कई कहानियां हमने सुनी हैं, अनुभव भी किया है. न जाने कितने ही टीचर्स के फ़ेयरवेल पर रोते-बिलखते बच्चों के वीडियोज़ भी देखे हैं. गुरु को शास्त्रों में ईश्वर से ऊपर दर्जा दिया गया है. इसके बावजूद आज की दुनिया में कहा जाता है कि जिसे कुछ नहीं आता वो B.Ed करके टीचर बन जाता है.
कुछ शिक्षकों के लिए बच्चों को पढ़ाना ज़रूरत है लेकिन कुछ शिक्षकों की ज़िन्दगी का मकसद ही है बच्चों में अंदर ज्ञान की ज्योति जलाना. रिटायरमेंट नामक सरकारी टर्म इनके और बच्चों के बीच नहीं आ सकती. अगर स्कूल, कॉलेज में पढ़ाने को न मिले तो ये गांव की चौपाल पर या अपने घर के बाहर ही खाट लगाकर बिना दीवारों और छज्जे के ही ‘स्कूल’ बना लेते हैं.
आज जानते हैं ऐसे कुछ टीचर्स के बारे में जिनके लिए उम्र सिर्फ़ एक संख्या है और उनके जीवन का उद्देश्य है ‘पढ़ाना’
1. 93 की उम्र में फ़िज़िक्स पढ़ाती हैं प्रोफ़ेसर सितम्मा
आंध्र प्रदेश की 93 वर्षीय प्रोफ़ेसर संतम्मा सेन्टुरियन यूनिवर्सिटी में पिछले 6 दशकों से पढ़ा रही हैं. घुटने की सर्जरी की वजह से वे बैसाखियों की मदद से चलती हैं. तकलीफ़ होने के बावजूद मुस्कुराते हुए क्लास पहुंचती हैं. आंध्र प्रदेश के विज़यानगरम स्थित इस यूनिवर्सिटी में वे सालों से फ़िज़िक्स पढ़ा रही हैं और युवाओं को प्रेरित कर रही हैं. 1989 में वे रिटायर हो गईं लेकिन उन्होंने कॉलेज में पढ़ाना नहीं छोड़ा. हर विषय के बारे में उन्हें इतना ज्ञान है कि छात्र उन्हें चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया कहते हैं. छात्र प्रोफ़ेसर सितम्मा की क्लास मिस नहीं करना चाहते.
2. 100 की उम्र में ट्यूशन पढ़ाती हैं लक्ष्मी मैम
तमिलनाडु की 100 साल की लक्ष्मी मैम सालों से मोहल्ले के बच्चों को पढ़ा रही हैं. रोज़ सुबह उनके घर पर बच्चों का जमावड़ा लगता है और लक्ष्मी मैम उम्र की परवाह किए बगैर उन्हें पढ़ाती हैं. लक्ष्मी 8वीं कक्षा तक हर विषय पढ़ाती हैं लेकिन हिन्दी से उन्हें ख़ास लगाव है. उन्हें हिन्दी भाषा का गहरा ज्ञान है और तकरीबन 80 साल का टीचिंग एक्सपीरियंस है. आज भी बहुत से छात्र हिन्दी में अच्छे नंबरों से पास करने के लिए लक्ष्मी की मदद लेते हैं. 1949 में लक्ष्मी ने नौकरी छोड़, सी पी सुंदरेस्वरन से शादी की. लक्ष्मी के पति भी शिक्षक थे और दोनों ने उडुमालपेट के कराट्टूमदम स्थित गांधी कला निलयम में पढ़ाना शुरु किया. लक्ष्मी 1981 में जिस दिन रिटायर हुईं उसी दिन से घर पर बच्चों को हिन्दी पढ़ाना शुरु कर दिया.
3. मरते दम तक बच्चों और बुज़ुर्गों को फ्री में पढ़ाने वाले नंदा मास्टर
ओडिशा खुद 7वीं तक पढ़े नंदा प्रस्टी आखिरी दम तक बच्चों और गांव के अशिक्षित बुज़ुर्गों को पढ़ाते रहे. समाज के प्रति उनकी ऐसी निस्स्वार्थ सेवा को भारत सरकार ने भी सराहा और उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया था. उन्हें कांतिरा गांव में ‘नंद मस्तरे’ के नाम से जाना जाता था. उन्होंने परंपरा के तहत शिक्षा के लिए एक गैर-औपचारिक स्कूल चलाया और सात दशकों तक बच्चों को फ्री में पढ़ाया. वो चाहते थे कि हर कोई कम से कम अपना नाम लिख सके. अपने गांव के अधिकांश घरों की कम से कम तीन पीढ़ियों को पढ़ा चुके थे नंदा मास्टर.
4. 80 की उम्र में भी मुफ्त में बच्चों को पढ़ाते हैं दुबे सर
बिहार के राजेंद्र दुबे 2003 में ही रिटायर हो गए थे लेकिन उन्होंने बच्चों को पढ़ाना जारी रखा. अलग-अलग स्कूल के बच्चे सुबह से शाम तक उनके घर पर पढ़ने आते हैं. दुबे सर का कहना है कि उनक जन्म युवाओं को शिक्षा के माध्यम से सशक्त और समृद्ध करने के लिए हुआ है. दुबे सर बच्चों को सिर्फ़ पढ़ाते ही नहीं हैं बल्कि उनकी क्षमता को पहचानकर उन्हें उचित क्षेत्र में जाने की सलाह भी देते हैं. दुबे सर की एक और खास बात है वो बिना किताब देखे ही बच्चों को पढ़ाते हैं.
5. आखिरी सांस तक उर्दू की तालीम देते रहे मास्साब प्रेम सिंह बजाज
लुधियान के पंजाबी भवन में लगभग 24 साल तक छात्रों को उर्दू पढ़ाते रहे प्रेम सिंह बजाज. जगरांव के लाजपत राय डीएवी कॉलेज के रिटायर्ड प्रिंसिपल बजाज ने रिटायरमेंट के बाद भी पढ़ाना नहीं छोड़ा. वे 6 महीने के उर्दू सर्टिफ़िकेशन कोर्स में पढ़ाते थे जिसे पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा चलाया जाता था. The Indian Express के लेख के अनुसार, उनकी क्लास में युवा से लेकर बुज़ुर्ग तक सभी पढ़ने आते थे और बजाज साहब उन्हें मेरे अजीज़ दोस्तों कहकर संबोधित करते थे.