कुछ कहानियां दिल को छू लेने वाली होती है. कुछ ही ऐसी ही कहानी बिहार की रहने वाली डॉली वर्मा की है. डॉली वर्मा ने जिस तरह से अपने राज्य में ‘सरपंच पति’ व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और महिलाओं के हक के लिए लड़ रही हैं वो दूसरी महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया है.
‘सरपंच पति’ प्रणाली क्या है?
‘सरपंच पति’ प्रणाली देश के कई राज्यों में प्रचलित है, जहां परिवार के पुरुष सदस्य निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के लिए प्रॉक्सी के रूप में कार्य करते हैं. भले ही पंचायती राज और शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं, फिर भी महिलाओं को अपनी भूमिकाओं में परिवार के पुरुष सदस्यों के हस्तक्षेप का सामना करना पड़ता है.
फरवरी 2023 में MoS पंचायती राज, कपिल पाटिल ने राज्यसभा को सूचित किया था कि आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा , पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और दो केंद्र शासित प्रदेश – लक्षद्वीप-दादरा, नगर हवेली-दमन और दीव समेत देश के कुल 21 राज्यों के पंचायती राज और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण प्रदान किया है.
50% आरक्षण काम का क्यों नहीं?
स्थानीय निकायों में उनके लिए 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के कदम को महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया गया. हालांकि, दुखद वास्तविकता यह है कि वास्तविक शक्ति अभी भी महिला प्रतिनिधियों के पति या अन्य पुरुष सदस्यों के पास है. चुनाव प्रचार पोस्टरों पर महिला उम्मीदवार की जगह किसी पुरुष व्यक्ति का होना असामान्य नहीं है.
आपको याद हो तो अगस्त 2022 में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें बिहार में पंचायत चुनाव में निर्वाचित महिला उम्मीदवारों की जगह पुरुष रिश्तेदारों को पद की शपथ लेते देखा गया था.
‘सरपंच पति’ के खिलाफ लड़ाई क्यों?
बिहार की एक महिला सरपंच डॉली वर्मा का मानना है कि यह महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों और सम्मान का उल्लंघन है. महिला प्रतिनिधियों को अपने निर्णय परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा निर्देशित किए बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए. यही कारण है कि उन्होंने पूरे भारत में जारी पितृसत्तात्मक प्रथा के खिलाफ एक ऑनलाइन अभियान शुरू किया है.
डॉली वर्मा आखिर हैं कौन?
‘यूपी के मेरठ में जन्मी डॉली अब बिहार में रहती हैं. उन्होंने इंटरनेशनल बिजनेस में एमबीए किया, और कई बड़ी कंपनियों में काम करने के बाद अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत अपने पति के गृहनगर से की. अब वो गया में शादीपुर ग्राम पंचायत के 13 वार्डों की सरपंच हैं. अपने कार्यकाल में उन्होंने देखा है कि कैसे परिवार के पुरुष सदस्य महिलाओं को दरकिनार करते हुए निर्णय लेने में हावी हो जाते हैं.
डॉली कहती हैं, “मैं सार्वजनिक मंचों पर महिला सरपंचों को उनके पतियों या परिवार के अन्य पुरुषों द्वारा दरकिनार किए जाने से निराश हूं. जब पति और पिता सरपंच पति, या प्रॉक्सी के रूप में कार्यभार संभालते हैं, तो यह लोकतंत्र और ग्राम पंचायत चुनावों में मतदान करने वाले नागरिकों का अपमान है”.
सरपंच पति का मुद्दा चर्चा में कब-कब आया?
उन्होंने कहा, “ऐसे उदाहरण आम हैं जहां निर्वाचित महिला सरपंचों की ओर से उनके पुरुष परिवार के सदस्य चुनाव जीते बिना आधिकारिक तौर पर सरकारी अधिकारियों के साथ बैठकों में भाग लेते हैं. इस पर कोई आपत्ति नहीं करता है. सार्वजनिक पोस्टरों और बैनरों में उनकी तस्वीरें आकार में बड़ी या बराबर होती हैं. महिला सरपंच के साथ ऐसा व्यवहार लोकतंत्र और भारतीय संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है.”
डॉली का मानना है कि महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है अगर महिलाएं बिना किसी हस्तक्षेप के अपने समुदायों की सेवा नहीं कर सकती हैं.
बता दें, करीब एक दशक पहले उस वक्त सरपंच पति का मुद्दा बड़ा चर्चा का विषय बना था. जब तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने महिला सरपंचों को अयोग्य घोषित करने के लिए एक नए कानून का प्रस्ताव रखा था. 2015 में प्रधान मंत्री मोदी ने भी ‘सरपंच पति’ प्रणाली को समाप्त करने का आह्वान किया था.
इसी क्रम में इस साल अप्रैल में डीएमके से लोकसभा सांसद कनिमोझी करुणानिधि की अध्यक्षता में ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर 31 सदस्यीय संसदीय स्थायी समिति ने कहा था कि प्रचलित ऐसी प्रथाओं को रोकने के लिए पंचायतों में महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों को सशक्त और नेतृत्व में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए.
बदलाव की जरूरत क्यों है?
डॉली सरकार के कदमों की सराहना करते हुए कहती हैं, “मेरा मानना है कि अगर सरकार निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को क्षमता निर्माण प्रशिक्षण प्रदान करती है तो वे स्थायी बदलाव ला सकती हैं और अन्य महिलाओं को भी सशक्त बना सकती हैं”. उनके अनुसार, अब समय आ गया है कि जब इस प्रथा को खत्म करने के लिए नियम बनाए जाएं ताकि इसमें शामिल लोगों को आपराधिक कार्रवाई का सामना करना पड़े.
डॉली कहती हैं, “चूंकि हमारा समाज पूरी तरह से पितृसत्तात्मक है, इसलिए कई लोग महिलाओं को राजनीतिक नेता और निर्वाचित प्रतिनिधियों के रूप में कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. यह सामाजिक रवैया तभी बदलेगा जब हमारे पास अधिक मजबूत और स्वतंत्र महिला राजनेता और मंत्री होंगी. मुझे उम्मीद है कि अधिक लड़कियां शिक्षित होंगी. मुझे यकीन है कि आज नहीं तो निकट भविष्य में बदलाव जरूर आएगा.