कोई भी बिजनेस साम्राज्य एक दो साल में खड़ा नहीं होता बल्कि इसे फलने फूलने में दशकें बीत जाती हैं. वैसे भी किसी बिजनेस को खड़ा करना जितना मुश्किल है उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है उसे कामयाबी की ऊंचाइयों तक बनाए रखना.
आज हम बात करेंगे कुछ ऐसे ही बिजनेस ब्रांडस की जो आजादी के पहले शुरू हुए और आज भी अपना विश्वास लोगों के बीच बनाए हुए हैं. तो चलिए जानते हैं उन ब्रांड्स के बारे में जो आजादी से पहले शुरू हुए और खड़ा कर लिया अरबों का साम्राज्य.
1. महिंद्रा एंड महिंद्रा
महिंद्रा एंड महिंद्रा वो कंपनी है जिसके चेयरमैन हैं आनंद महिंद्रा. 1945 में शुरू हुई इस कंपनी का शुरुआती नाम महिंद्रा एंड मोहम्मद कंपनी था. इस कंपनी को दो भाइयों जगदीश चंद्र महिंद्रा और कैलाश चंद्र महिंद्रा ने अपने साथी मलिक गुलाम मुहम्मद के साथ मिल कर शुरू किया था. महिंद्रा भाइयों ने मलिक गुलाम मुहम्मद के साथ मिलकर एमएंडएम को देश की बेहतरीन स्टील कंपनी बनाने के बारे में सोचा था, लेकिन देश के बंटवारे के बाद उनके इस सपने को बड़ा झटका लगा.
15 अगस्त 1947 को देश के बंटवारे के साथ ही देश के साथ कंपनी के हिंदू-मुसलमान दोस्त भी बंट गए. पाकिस्तान बनने के साथ ही मलिक गुलाम मुहम्मद ने पाकिस्तान चले गए और वहां के पहले वित्त मंत्री और फिर पाकिस्तान के तीसरे गवर्नर जनरल बने.
मुश्किल तो थी लेकिन इसके बावजूद महिंद्रा बंधुओं ने ने अपनी हिम्मत बनाए रखी और कंपनी को आगे बढ़ाने का फैसला किया. आज महिंद्रा एंड महिंद्रा ग्रुप की कुल संपत्ति 22 बिलियन है. इस ग्रुप का कारोबार आज 100 देशों में फैला हुआ है. 150 कंपनियों के साथ महिंद्रा एंड महिंद्रा ग्रुप ने 2.5 लाख से ज़्यादा लोगों को रोजगार दिया है.
2. बिसलेरी
शुरुआत में बिसलेरी मलेरिया की दवा बेचने वाली कंपनी थी, जिसे एक इटैलियन बिज़नेसमैन Felice Bisleri ने शुरू किया था. 1921 में Felice Bisleri के निधन के बाद ये दवा कंपनी उनके फैमिली डॉक्टर रोजिज ने खरीद ली. इसके बाद उन्होंने अपने एक वकील दोस्त के बेटे खुशरू संतुक के साथ मिल कर एक नए तरह के व्यापार में हाथ आजमाने का फैसला किया. ये व्यापार था पानी का. 1965 में खुशरू संतुक ने मुंबई के ठाणे इलाक़े में पहला ‘बिसलेरी वाटर प्लांट’ स्थापित किया.
उन दिनों ये पानी की बोतल 1 रुपये की हुआ करती थी. बिसलेरी ने बिसलेरी वाटर और बिसलेरी सोडा के साथ इंडियन मार्केट में कदम रखा. शुरुआती दिनों में बिसलेरी के ये दोनों प्रोडक्ट केवल अमीरों की पहुंच तक ही सीमित थे और 5 सितारा होटल्स तथा महंगे रेस्टोरेंट में ही मिलते थे. कंपनी भी जानती थी कि अपने प्रोडक्ट्स को सीमित दायरे में रख कर सफलता नहीं पा सकेगी, इसलिए कंपनी ने धीरे धीरे अपने प्रोडक्ट्स को आम लोगों तक पहुंचाना शुरू किया. आम लोगों की पहुंच तक आने के बाद भी ज़्यादातर लोग इस कंपनी का सोडा खरीदना ही पसंद करते थे.
खुशरू संतुक के बाद बिसलेरी की कामान आई ‘पार्ले कंपनी’ के कर्ताधर्ता ‘चौहान ब्रदर्स’ के पास. प्रोडक्ट की बिक्री बढ़ाने के लिए पार्ले ने ब्रांड प्रमोशन का सहारा लिया, पेकिंग में कई तरह के बदलाव किए. इतना कुछ करने के बाद बिसलेरी वाटर मार्केट में अपनी रफ्तार पकड़ने लगा.
जिस आइडिया को कभी पागलपन कहा गया था उस आइडिया से बिसलेरी ने भारत की सील्ड वाटर बॉटल इंडस्ट्री पर 60% हिस्सेदारी पा ली है. अपने 135 प्लांट्स के दम पर बिसलेरी रोज़ाना 2 करोड़ लीटर से भी अधिक पानी बेचने वाली कंपनी बन गई है. बिसलेरी अपने प्रोडक्ट को 5000 से अधिक डिस्ट्रीब्यूटर्स ट्रकों और 3500 डिस्ट्रीब्यूटर्स के ज़रिए साढ़े तीन लाख रिटेल ऑउटलेट्स तक पहुंच रही है. 2019 में भारत में बिसलेरी की मार्केट वैल्यू 24 बिलियन डॉलर थी, माना जा रहा है कि 2023 तक सिकी मार्केट वैल्यू 60 बिलियन डॉलर होगी.
3. फेविकोल
सन 1925 में गुजरात के भावनगर जिले के महुवा नामक कस्बे में जन्में बलवंत पारेख एक सामान्य परिवार से संबंध रखते थे. बलवंत पारेख वकालत की पढ़ाई के लिए मुंबई चले गए. कुछ समय बाद उन्होंने वालट करने का मन बदल दिया और मुंबई जैसे शहर में जीवन चलाने के लिए एक डाइंग और प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी कर ली. इसके बाद उन्होंने एक लकड़ी व्यापारी के कार्यालय में चपरासी की नौकरी कर ली. वह प्रिंटिंग प्रेस से लेकर लकड़ी व्यापारी के यहां काम करने तक वह कुछ ना कुछ सीखते रहे.
बलवंत को अपने सपने साकार करने का मौका तब मिला जब भारत आजाद हुआ. बलवंत को अपने वे दिन याद आए जब वह लकड़ी व्यापारी के यहां चपरासी थे. इस दौरान उन्होंने देखा था कि कैसे कारीगरों को दो लकड़ियों को जोड़ने में कितनी मुश्किल आती थी. लकड़ियों को आपस में जोड़ने के लिए पहले जानवरों की चर्बी से बने गोंद का इस्तेमाल किया जाता था. इसके लिए चर्बी को बहुत देर तक गर्म किया जाता था. गर्म करने के दौरान इसमें से इतनी बदबू आती थी कि कारीगरों का सांस लेना तक मुश्किल हो जाता था. इस बारे में सोचते हुए बलवंत को आइडिया आया कि क्यों ना ऐसी गोंद बनाई जाए जिसमें से ना इतनी बदबू आए और ना उसे बनाने में इतनी मेहनत लगे.
वह इस संबंध में जानकारी जुटाने लगे. बहुत तलाशने के बाद उन्हें सिंथेटिक रसायन के प्रयोग से गोंद बनाने का तरीका मिल गया. इस तरह बलवंत पारेख ने अपने भाई सुनील पारेख के साथ मिल कर 1959 में पिडिलाइट ब्रांड की स्थापना की तथा पिडिलाइट ने ही देश को फेविकोल के नाम से सफेद और खुशबूदार गोंद दी.
यह कंपनी अब 200 से ज्यादा प्रोडक्ट्स तैयार करती है. लेकिन इसे सबसे ज्यादा फायदा फेविकोल ने ही दिया. गुजरात के एक साधारण परिवार से आने वाले बलवंत पारेख, जिन्होंने चपरासी तक की नौकरी की, उन्हें फोर्ब्स कुछ वर्ष पहले एशिया के सबसे धनी लोगों की सूची में 45वां स्थान दे चुकी है. उस समय बलवंत पारेख की निजी संपत्ति 1.36 बिलियन डॉलर थी.
4. ओबेरॉय होटल्स
मात्र 6 महीने की उम्र में अपने पिता को खोने के बाद मोहन सिंह ओबेरॉय को उनकी मां ने बड़ी मुश्किल से पाला. पढ़ाई पूरी होते ही मोहन सिंह ने नौकरी के लिए हर दरवाजा खटखटाया लेकिन उनकी किस्मत का दरवाजा कहीं नहीं खुला. एक जूता बनाने वाली फैक्ट्री में मजदूरी भी की लेकिन वो फैक्ट्री भी बंद हो गई.
समय बीतता रहा मगर उनके जीवन में कोई सुधार न आया. इसी बीच किस्मत उन्हें शिमला ले गई. जाने से पहले उनकी मां ने उन्हें 25 रुपये दिए जिसके दम पर वह शिमला पहुंचे. यहां उन्हें 40 रुपए महीने पर उस समय के सबसे बड़े होटल सिसिल में क्लर्क की नौकरी जरूर मिल गई.
यहीं से उनकी किस्मत बदली. 14 अगस्त 1935 को मोहन सिंह ने उसी होटल को 25000 में खरीद लिया जहां वह नौकरी करते थे. इसके बाद तो उन्होंने ऐसी रफ्तार पकड़ी कि अपनी मौत से पहले अरबों का होटल साम्राज्य खड़ा कर दिया. इस तरह मोहन सिंह ओबेरॉय ने भारत के सबसे बड़े होटल उद्योग ओबेरॉय होटल्स की नींव रखी.
5. डाबर
डाबर की शुरुआत साल 1884 में कलकत्ता के एक आयुर्वेदिक डॉक्टर डॉ एस के बर्मन ने की थी. उन्होंने आयुर्वेद की मदद से हैजा और मलेरिया में कारगर साबित होने वाली दवाइयां भी बनाईं. 1884 ही वो साल था जब डॉ बर्मन ने आयुर्वेदिक हेल्थकेयर प्रोडक्ट बनाने की शुरुआत की. दरअसल उनकी ये शुरुआत ही डाबर जैसे हेल्थ केयर बिजनेस की नींव थी.
डॉ बर्मन अपने नाम से डाक्टर का ‘डा’ और बर्मन का ‘बर’ लेकर इस ब्रांड को नया नाम दिया डाबर. डॉ साहब कहां जानते थे कि उनके द्वारा रखा गया ये नाम एक दिन पूरे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपना नाम करेगा. हाथ से ही जड़ी बूटियां कूट कर अपने उत्पाद बनाने वाले डॉ बर्मन के प्रोडक्ट 1896 तक इतने लोकप्रिय हो गए कि उन्हें एक फैक्ट्री लगानी पड़ी.
डाबर धीरे धीरे सफलता की ऊंचाइयां छूने की तरफ बढ़ रहा था लेकिन उन्हीं दिनों 1907 में डॉ एस के बर्मन डाबर को अपनी अगली पीढ़ी के हाथों में सौंप कर हमेशा के लिए इस दुनिया से चल बसे. कलकत्ता की तंग गलियों में शुरू हुआ डाबर का सफर 1972 में दिल्ली के साहिबाबाद की विशाल फैक्ट्री, रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर तक पहुंच चुका था. आज के समय में बर्मन परिवार की टोटल नेट वर्थ 11.8 बिलियन डॉलर हो गई है.