“यार तुम तो एमबीए हो वो भी टॉपर फिर मेरी इस छोटी सी कम्पनी में काम क्यों करना चाहते हो?”
इंटरव्यू ले रहे उस इंसान ने अमोल से सवाल पूछा जिसके चेहरे पर सजी रौबदार मूछें किसी भी सीधे साधे इंसान को डराने के लिए काफ़ी थीं.
“सर सवाल आपका बिलकुल सही है लेकिन मेरी सोच कुछ अलग है. मैं सोचता हूं किसी बड़ी संस्था का हिस्सा बन कर भीड़ में खो जाने से अच्छा है किसी नयी संस्था के साथ मिल कर उसे आगे बढ़ा सकूं.” अमोल ने उन रौबदार मूंछों का ख़ौफ़ खाए बिना पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया.
“हम्म्म्म, बट, यहां तो और भी बहुत सी नयी कंपनीज़ हैं, जो तुम जैसे टॉपर को यहां से बढ़िया पैकेज के साथ नौकरी दे सकती हैं. फिर तुम हमारे साथ ही काम क्यों करना चाहते हो?” अमोल के पहले जवाब पर कुछ खास प्रतिक्रिया न देते हुए उस मूंछों वाले इंसान ने दूसरा प्रश्न सामने रखा.
“लालच है सर, बस इसीलिए.” अमोल ने मुस्कुरा कर कहा.
अमोल के जवाब ने सामने वाले व्यक्ति को थोड़ा विस्मित किया. वो चौंकते हुए बोले “लालच ? कैसा लालच?”
“भले ही मैंने एमबीए किया है, टॉपर रहा हूं. लेकिन सीखने की तो अभी शुरुआत ही करनी है और शहर में ये बात कौन नहीं जानता कि एन डी चड्ढा से बेहतर बिजनेस मैनेजमेंट कोई नहीं सिखा सकता. जहां लोगों को एक बिजनेस खड़ा करने में सालों लग जाते हैं.
वहीं आप हर पांच साल बाद बिजनेस बदलते हैं और फिर से उसे टॉप पर पहुंचा देते हैं. व्यापर जैसे आपके इशारों पर नाचता है. यही हुनर सीखना है मुझे, बस इसी लालच में यहां तक चला आया.”
कहते हैं इंसान कितना भी सख्त हो लेकिन अपनी तारीफ सुन कर वो थोड़ा नर्म ज़रूर पड़ जाता है. चड्ढा साहब तो इतने सख्त भी नहीं थे इसलिए उनका नर्म पड़ना तो स्वाभाविक था. नतीजन अमोल का जवाब सुन कर न चाहते हुए भी उनके चेहरे पर एक गहरी मुस्कान खिल गयी.
“तुम्हारे इस जवाब ने ये तो क्लियर कर ही दिया कि तुम हमारी संस्था के लिए बहुत उपयोगी साबित हो सकते हो. मुझे नहीं लगता कि तुम्हें हायर करने में हमें देर करनी चाहिए. यंगमैन यू आर सलेक्टेड. सारी फॉर्मेलिटीज़ पूरी करने के बाद नेक्स्ट वीक से तुम ज्वाइन कर सकते हो.”
“थैंक यू सो मच सर. मैं कोशिश करूँगा कि जिन उम्मीदों के साथ आपने मुझे सलेक्ट किया है मैं उससे ज्यादा करके दिखाऊँ.”
“गुड. अच्छा एक बात तुमसे कहना चाहूंगा. पता नहीं कहनी चाहिए या नहीं मगर मैं कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा.”
“कहिये ना सर. आप कुछ भी कहने का अधिकार रखते हैं.”
“पता नहीं क्यों तुम्हारा बात करने का लहज़ा मुझे किसी ऐसे की याद दिला रहा है जिसे मैं सालों से याद नहीं करने की कोशिश कर रहा हूं.” चड्ढा साहब की इस बात से अमोल के ऊपर क्या असर पड़ा ये सामने आने से पहले ही अमोल ने अपना जवाब दे दिया. जैसे उसने पहले से सोच रखा हो.
“होता है सर, कई बार ऐसा संयोग होता है. अब देखिए ना आप मेरे बॉस हैं. मुझे आपके सामने घबराना चाहिए लेकिन न जाने क्यों मुझे घबराहट बिलकुल नहीं महसूस हो रही. लग रहा है जैसे आपको बहुत पहले से जानता हूँ. उम्मीद करता हूँ ये संयोग हम दोनों के लिए अच्छा साबित हो.” इसके बाद अमोल चड्ढा साहब से इजाज़त ले कर चला गया. वो काफ़ी देर तक अमोल के बारे में सोचते रहे.
समय अपनी गति के साथ चलता रहा. चड्ढा साहब ने जिस भरोसे के साथ अमोल को नौकरी दी थी अमोल उससे कहीं ज़्यादा बेहतर कर रहा था. हर नया क्लाइंट अमोल का कायल हो रहा था. रात दिन की परवाह किए बिना अमोल जी तोड़ मेहनत कर रहा था. चड्ढा साहब उसे देख कर ऐसे खुश हो रहे थे जैसे कोई पिता अपने पुत्र की कामयाबी देख कर होता है.
चड्ढा साहब की फैमिली में कोई नहीं था. बचपन में ही उन्होंने मां बाप को खो दिया था. रिश्तेदारों ने उनकी संपत्ति की लालच में जैसे तैसे उन्हें पाला पोसा. बचपन से ही व्यापर सीख गए थे चड्ढा साहब. उन्हें समझ आ गया था कि दुनिया को कैसे खुश कर के अपना फायदा निकलना है. जब होश संभाला तब तक रिश्तेदार उनकी एक तिहाई संपत्ति या तो खा गए थे या फिर अपने नाम करा ली थी. जितनी बची थी उसके साथ उन्होंने अपना खुद का बिजेनस खड़ा किया.
एक लड़की से प्यार हुआ, उससे शादी की घर बसाया लेकिन नियती शायद चाहती नहीं थी कि उन्हें किसी का साथ मिले. एक हादसे में उनकी पत्नी और दो साल की बेटी उनका साथ छोड़ गयीं. टूट से गए थे चड्ढा साहब लेकिन उनका इकलौता दोस्त रघुवर जैसे उनके दुखों के सामने पहाड़ बन कर खड़ा हो गया था. उसने चड्ढा साहब के परिवार की कमी काफ़ी हद तक पूरी कर दी थी. मगर नियती यहां भी अपना खेल दिखा गयी और चड्ढा साहब रघुवर से अलग हो गए.
कई सालों बाद अब जा कर कोई मिला था जिसे देख कर चड्ढा साहब को अपनेपन का अहसास होता था. अमोल भी चड्ढा साहब का दिल से सम्मान करता था. कम्पनी के साथ जुड़ने वाले अधिकतर नए क्लाइंट्स अमोल को चड्ढा साहब का बेटा समझते थे. जानने के बाद भी चड्ढा साहब कुछ नहीं बोलते और दिल से मुस्कुरा देते.
इधर अमोल चड्ढा साहब से बढ़ रही नजदीकियों को लेकर ज़्यादा ही खुश था. उसकी आंखों की चमक बता रही थी कि वो चड्ढा साहब का विश्वास जीतने के लिए ही सारी मेहनत कर रहा है. दोनों के बीच बहुत अजीब सा रिश्ता बन गया था. दिन भर दोनों ऐसे रहते थे जैसे गुरु और शिष्य, बाप और बेटा, इम्प्लोई और बॉस लेकिन शाम होते ही दोनों गहरे दोस्त बन जाते.
शुरुआत में तो अमोल बस चखने की रेल बना कर सॉफ्ट ड्रिंक के साथ चड्ढा साहब का साथ देता लेकिन वक्त बीतने के साथ साथ दोनों ‘पैग बांट’ भाई हो गए. हफ़्ते में दो तीन दिन महफ़िल सजना तो तय ही था. फिर तो शराब की चुस्कियों के साथ लंबी बातों का दौर चलता.
कम्पनी की रेपुटेशन और दोनों की नजदीकियां बढ़ती चली गयीं. अमोल अब एक विजेता की तरह महसूस कर रहा था. अब तो दोनों रहते भी एक ही घर में थे. वैसे भी चड्ढा साहब इतने बड़े घर में अकेले ही रहते थे सो अमोल को भी उन्होंने साथ रहने के लिए मना लिया.
एक शाम लगभग तीन पेग डाउन होने के बाद
“सर एक सवाल पूछूं ?”
“अरे पूछ ना भाई, एक क्यों दो तीन दस बारह जितने मन उतने पूछ.” चौथा पेग डाउन करते हुए चड्ढा साहब ने कहा.
“सर आप तो इतने अनुभवी हैं फिर आप अपना हर बिजेनस पांच साल में क्यों बदल देते हैं. जबकि आप चाहते तो किसी भी बिजनेस को बुलंदियों तक ले जा सकते थे आज देश के गिने चुने अमीरों में आपका शुमार होता”
“बहुत बड़ा सवाल पूछ लिया बेटा तूने. मैं इसी सवाल से बचता फिरता हूँ. सच कहूँ तो सारी पी हुई उतार दी तूने.” पांचवां पेग बनाते बनाते चड्ढा साहब ने बोतल नीचे रख दी.
“आपको हर्ट करने का मेरा कोई इरादा नहीं था सर. लेकिन मैं समझता हूँ कोई बात तब तक तकलीफ़ देती है जब तक उसे मन में दबा कर रखा जाए. शायद अभी तक आपको कोई ऐसा ना मिला हो जिसे आप अपने दिल की बात खुल कर कह सके हों लेकिन अगर आप मुझे अपना मानते हैं तो मुझसे कह सकते हैं.” ऐसा लग रहा था मानों अमोल चड्ढा साहब से उनके मन की बात बुलवाना चाहता है.
“तू अब मेरे लिए किसी अपने से भी ज़्यादा है बेटा. इसलिए नहीं कि तूने मेरा बिजनेस संभाला. ये तू भी अच्छे से जानता है कि किसी भी बिजनेस को पांच साल चलाने के लिए मैं अकेला ही काफी हूँ. नहीं भी चलेगा तब भी इतना कमा लिया है कि पूरी दुनिया घूम जाऊं तब भी दौलत ख़त्म न होगी. तू एक बेटे की तरह मेरी फ़िक्र करता है. एक बेटे की आँखों में अपने पिता के लिए जो सम्मान होता है वही सम्मान मैंने तेरी आँखों में अपने लिए देखा है.”
चड्ढा साहब को खुद याद नहीं था कि आज से पहले कब वो इस तरह से भावुक हुए थे.
“जब इतना मानते हैं तो मन की बात क्यों नहीं बताते. आपकी आँखों में हमेशा एक खालीपन देखा है मैंने. जब तक उसे जानूंगा नहीं तब तक उसे भर नहीं सकता.”
“मैं कोई भी बिजनेस तब तक चलाता हूँ जब तक मैं अकेला उसकी देख रेख कर सकूं. ज़्यादा समय तक किसी भी काम या इंसान से जुड़े रहना मुझे किसी ऐसे की याद दिलाता है जिसे याद करने से मैं हमेशा खुद को रोकता रहा हूँ. तू भी उन्हीं में से है जो मुझे उस इंसान की याद दिलाते हैं लेकिन पता नहीं क्यों मैं तुझसे अलग नहीं होना चाहता. पहले दिन ही मैंने तुझे कहा था ना. उसके बाद मैंने नोट किया तेरी बातें हरकतें सब मिलती हैं उससे.” चड्ढा साहब न चाहते हुए भी छलक पड़े.
“मगर वो कौन हैं?”
“हैं नहीं था. वो इंसान जो मेरी जान से ज़्यादा मुझे अजीज़ था लेकिन आज मैं सबसे ज़्यादा उसे नफ़रत करता हूँ, रघुवर. मेरा ऐसा दोस्त जो किसी भी दुःख को मुझ तक पहुँचने से पहले ही अपने ऊपर ले लेता था. मैं खुद से ज़्यादा उस पर भरोसा करता था. लेकिन ग़रीब परिवार का बेटा था, ज़रूरतों ने हर तरफ से घेर रखा था उसे. मैंने उसकी हर संभव मदद करने की कोशिश की थी. लेकिन ज़रूरतें उसकी ईमानदारी और हमारे प्यार पर भारी पड़ गयीं.”
”वो रातों रात मेरी खून पसीने से खड़ी की हुई कंपनी को बेच कर फरार हो गया. मैंने ही उसे अपनी संपत्ति उसके हाथ में दी थी. मुझे लगता था मैं खुद अपना दुश्मन हो सकता हूं लेकिन वो कभी नहीं. दुःख पैसों का नहीं है मुझे, ये बात वे सभी जानते हैं जो मेरे करीब रहे, मैंने पैसों को कभी रिश्तों से ऊपर नहीं रखा. मुझे दुःख है तो उसकी गद्दारी है, उसके किए विश्वासघात का”
“आपने कभी उन्हें दोबारा ढूँढने की कोशिश नहीं की ? उनसे पूछा नहीं कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया?”
“अब क्या पूछना बाकी रह गया था. मुझे उससे नफ़रत हो गयी थी. उससे क्या मुझे उस शहर से भी नफ़रत हो गयी थी. इसीलिए तो वहां से सब कुछ बेच कर दूर चला आया. उसके बाद से मैंने किसी को अपने नजदीक आकर अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया. जब जान से प्यारा दोस्त अपना ना हुआ तो और कोई क्या होगा. वो मक्कार….” अचानक से गिलास टूटने की आवाज़ ने चड्ढा साहब की बात को पूरा नहीं होने दिया.
“बस करिए सर.” अमोल चिल्लाया चड्ढा साहब समझ न पाए कि अमोल क्यों ऐसे बात करने लगा
“अब और कुछ मत कहिए. हाथ जोड़ता हूँ आपके आगे. वो इंसान जिसे आप मक्कार कहते आये हैं वो सारी उम्र बस एक ही ग्लानी में जिया कि उसने आपके साथ धोखा किया है. वो भी ऐसा धोखा जो उसकी सबसे बड़ी मज़बूरी के साथ जुड़ा है.”
”मैं नहीं कहता वो सही थे लेकिन वो इतने गलत भी नहीं थे जितना आप उन्हें समझते आये हैं. बहुत ढूंढा उन्होंने आपको. महीनों घर से गायब रहते थे बस आपकी तलाश में. चाहते थे कि आपको सब सच सच बता दें.” चड्ढा साहब हैरानी से मुंह बाए सब सुन रहे थे. उनका सारा नशा उतर चुका था.
“मगर तुम रघुवर के बारे में….”
“बेटा हूँ उनका मैं. अमू हूं मैं. वही अमू जिसे आप एक पल के लिए भी ज़मीन पर नहीं उतारना चाहते थे, सीने से लगाए रखते थे. इन सबकी जड़ मैं हूं सर. मेरी बीमारी ने उन्हें डरा दिया था एकदम से. डॉक्टर ने मुझे बचाने के बदले इतने पैसों की डिमांड रख दी थी जिसे पिता जी सात जन्मों में भी पूरा न कर पाते.”
कुछ देर सन्नाटा छाया रहा. चड्ढा साहब कुछ बोलने की हालत में नहीं थे. एक पल के लिए आया कि अभी इस सपोले को धक्के मार कर निकाल दें लेकिन फिर उन्हें उसमें वही मासूम चेहरा दिखने लगा जिसे कभी वो हरदम सीने से लगाए रखते थे.
“क्या तू मेरा कुछ नहीं लगता था ? क्या वो ये बात मुझसे नहीं कह सकता था.”
“कह सकते थे. कहने की कोशिश भी की थी. आप महीने भर से बाहर थे. इसी बीच मेरी बीमारी सामने आई. जिस रात आप लौटे उस रात डॉक्टर ये कह चुके थे कि अगर जल्द से जल्द ऑपरेशन न किया गया तो मेरा बच पाना लगभग नामुमकिन होगा. पिता जी आपके पास गए थे लेकिन व्यापार में हुए भारी घाटे के चलते आप बहुत ज़्यादा परेशान थे. ऐसे में एक बाप भला क्या करता सर.” अमोल फूट फूट कर रो पड़ा. चड्ढा साहब से कुछ बोलते नहीं बन रहा था.
“उन्हें अहसास था कि उन्होंने उसके साथ धोखा किया है जिसने उन्हें अपना सबकुछ माना. लेकिन सर औलाद के आगे बड़े बड़े योद्ध घुटने टेक गए फिर वो तो आम सा पिता थे. आपको बहुत ढूंढा, दिन रात मेहनत कर पाई पाई इकट्ठी की, नया काम शुरू किया लेकिन मेरी पढाई के आलावा खुद पर बस उतना ही खर्च किया जितने में इंसान जी सके.”
”हर किसी का सपना होता है कि उसका बच्चा पढ़ लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर या कोई बड़ा अधिकारी बने लेकिन मेरे पिता ने हमेशा ये सपना देखा कि मैं इस काबिल बनूं कि आपका साथ दे सकूं. हर समय आपकी बातें. आपको नहीं पता लेकिन मैं आपके साथ ही बड़ा हुआ हूं.”
चड्ढा साहब जैसे बीते कल में वापस जा कर सब ठीक करने की कोशिश कर रहे थे. एक दम शांत, नज़रें अमोल की बहती आँखों पर जमी हुईं.”
“सारी उम्र आपको ढूंढते रहे. मां चल बसीं, खुद बीमार हो गए. मुझसे हमेशा ये कहते कि बेटा मैं ना भी रहूं तब भी मेरे मन का बोझ ज़रूर उतारना. नारायण से मिल कर माफ़ी ज़रूर मांग लेना. मैंने उसके हिस्से के सारे पैसे जमा किए हैं, तेरी मां और अपनी बीमारी में भी उन्हें छुआ तक नहीं.”’
”मैं कभी ऐसा पाप ना करता अगर तेरी जान दांव पर ना लगी होती. मैं जानता हूँ वो जितना नर्म है उतना ही सख्त भी. पैसे उसके लिए मायने नहीं रखते. मैंने विश्वास तोड़ा है उसका वो माफ़ नहीं करेगा लेकिन तू कोशिश ज़रूर करना. उसने माफ़ न किया तो मैं चैन से मर भी न पाऊंगा.”
“कहां है रघुवर उसके पास ले चलो.” चड्ढा साहब ने चुप्पी तोड़ी.
“जिस दिन मुझे आपका पता मिला उसी दिन मैं उन्हें ये खुशखबरी देने अस्पताल गया लेकिन ये सुख उनकी किस्मत में नहीं था. मेरे पहुँचने से पहले वो जा चुके थे. जाने से पहले ये चिट्ठी छोड़ गये थे.” अमोल ने जेब से एक चिट्ठी निकल कर चड्ढा साहब की ओर बढ़ा दी.
चड्ढा साहब की नज़रें अब अमोल से हट कर उस चिट्ठी पर थीं…
प्यारे दोस्त नारायण,
मुझे अपने बच्चे पर भरोसा है, मेरे बाद भी वो मेरी अंतिम इच्छा को पूरा करेगा और तुम ये चिट्ठी पढ़ रहे होगे. नारायण हमने बचपन साथ देखा, जवानी साथ देखी. जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा था उसी दिन पता नहीं क्यों मन में आया था कि ज़िन्दगी भर तुम्हारे साथ ही रहना है.
मेरी मां तक ने मुझे सिखाया था कि बेटा नारायण बहुत अकेला है मगर तू उसे कभी अकेला महसूस न होने देना. कुछ भी हो जाए उसका साथ न छोड़ना. मैंने हर दुःख सहा लेकिन तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा. मगर क्या करता नारायण जिंदगी ने ऐसी परीक्षा ली कि मैं देस्ती के इम्तेहान में फेल हो गया.
ये जो इतना बड़ा शरीर लिए तुम्हारे सामने खड़ा है ये मुट्ठी भर का हो गया था. तुम यहाँ नहीं थे और ये था कि मुझे इतना भी वक्त न दे रहा था कि तुम्हारा इंतज़ार कर सकूं. तुम आये सोचा सब बता दूँ लेकिन तुम परेशान थे. मेरे मन में चोर बैठ चुका था.
इतना भी न सोचा कि ये जितना मेरा है उससे ज़्यादा तुम्हारा. बचपन में मुझको काका कहता था और तुमको पापा. अगर मैं तुम्हे इसका हाल बताता तो तुम खुद वही करते जो मैंने किया लेकिन फिर भी मैं डर गया. सोचा क्या पता तुम मना कर दो तो मैं क्या करूंगा. इस नन्हीं सी जान को मरने नहीं दे सकता था. फिर मेरे पास दूसरा कोई रास्ता न बचा.
मैं सफाई नहीं दे रहा नारायण. बस अपने मन का बोझ हल्का कर रहा हूँ. तुम्हे शायद यकीन ना हो लेकिन ईश्वर ने सब देखा है. वो गवाही भरेगा कि तुम्हारे बाद मैं भिखारियों की तरह भटका. एक एक पाई जोड़ी सारी उम्र. इस बच्चे की पढाई पर जितना खर्च किया बस वही खर्चा है बाकी सब मैंने तुम्हारे लिए इकट्ठा किए. तुम्हारी भाभी मेरे सामने तड़प कर दम तोड़ गयी. उन दिनों फिर एक बार शैतान हावी हुआ मुझ पर लेकिन तुम्हारी भाभी ने जानते हो क्या कहा.
उसने कहा कि “अमू के लिए जो किए उसके बदले ज़िन्दगी जीना भूल गए. अब जब मन से बोझ उतरने वाला है तो फिर क्यों दोबारा लाद रहे हो. हमने जितनी जीनी थी जी ली. बेटा अपना करने लायक हो गया है. इन पैसों में से एक रूपया न खर्च करना. चैन से जी न सके कम से कम चैन से मर तो लो.” उसकी बात नहीं मानी मैंने, पैसे निकाल लिए लेकिन वो भली औरत मुझे और शर्मिंदा नहीं देखना चाहती थी सो चली गयी. आज अमू तुम्हारे सामने खड़ा है.
ठीक वैसे ही जैसे तुम कभी थे. तुम दोनों को ज़रूरत है एक दूसरे की. इसे मौका दे दो कि ये वो सब कर सके जो मैं तुम्हारे लिए न कर पाया.
अपनी ज़िन्दगी जी सकता था ये. विदेश से बुलावा आया था इसे लेकिन नहीं गया. कहता है सब मेरी वजह से हुआ तो सही भी मैं ही करूँगा. नारायण, तुम्हारा गुनहगार तुम्हारे सामने है. मन हो तो सजा दे लेना, मन हो तो गले लगा लेना. जानता हूँ तुमने शादी भी नहीं की होगी. करनी होती तो तभी कर लिए होते. इसलिए तुम्हे भी एक बेटे की ज़रूरत है और इसे अपने पापा की. और तुम्हारे पैसे का ब्याज समेत मैंने जोड़ रखे हैं. अमू तुम्हें सौंप देगा. इसे बस अपनी सेवा करने देना. बाक़ी हो सके तो मुझे माफ़ कर देना मेरे दोस्त.
तुम्हारा खुदगर्ज़ और मक्कार दोस्त
रघुवर
चिट्ठी आंसुओं से भीग चुकी थी. चड्ढा साहब अचानक से उठे. और अपने कमरे की ओर चल दिए. अमोल पीछे से आवाज़ देता रहा “सर…बात सुनिए सर ऐसे नहीं जाइए, कह दीजिये आपने पिता जी को माफ़ किया…” उन्होंने एक ना सुनी दरवाज़ा बंद कर लिया. अमोल दरवाज़ा पीटता रहा.
करीब दस मिनट बाद दरवाज़ा खुला. अमोल थक कर वहीं दरवाजे के पास ज़मीन पर बैठ गया था. चड्ढा साहब बाहर आये. कड़कती आवाज़ में बोले “खड़ा हो.”
अमोल लड़खड़ाते हुए खड़ा हुआ “यस सर.”
“पहली बात आज के बाद सर नहीं कहेगा.”
“तो क्या कहूं सर.”
“जो बचपन में कहता था.” अमोल की आंखें फिर से भर गयीं…
“जी पापा.” चड्ढा साहब ने उसे गले से लगा लिया. कुछ देर तक सिसकियों के सिवाय कुछ नहीं था वहां
“दूसरी बात, आज के बाद कभी शराब पी तो टांगे तोड़ दूंगा.”
अमोल रोती आंखों के साथ ऐसे हँसा मानों जैसे बरसात के बाद धूप खिल गयी हो. उसकी मुस्कराहट भरी पलकें ऐसे चमक रही थीं जैसे ओस की बूंदें उठाए घास. उसने खुद को समेट कर कहा “जी पापा.”