देर आए, दुरुस्त आए। ये कहावत हिमाचल के वन्य विभाग (The wildlife department) पर 10 साल बाद सटीक बैठती नजर आ रही है। ये मामला, एक दशक बाद इस वजह से चर्चा में आया है, क्योंकि विभाग झील में मौजूद कछुओं की प्रजातियों पर शोध की तैयारी में है। फ़िलहाल विभाग ने अनुमान लगाया है कि पहाड़ी प्रदेश की सबसे बड़ी कुदरती झील में कछुए की पांच प्रजातियां मौजूद है, इनमें से एक प्रजाति अन्य चार के लिए घातक है। यही वजह हो सकती है कि झील में कछुओं का कुनबा नहीं बढ़ रहा है।
28 सितंबर 2012 को वन्यजीव विभाग के एक कर्मचारी बेसू राम ने लायन सफारी के पास रेणुका झील के किनारे एक मादा कछुए को अंडे देते हुए देखा था। 18 जुलाई, 2013 को विभाग परिसर में लुप्तप्राय प्रजाति भारतीय सॉफ्टशेल (Indian peacock softshell) से संबंधित 12 कछुए के बच्चे (Baby turtles) का जन्म (hatchlings) हुआ। इसके बाद कुछ और का भी जन्म हुआ। लेकिन, विभाग ने लुप्तप्राय प्रजाति (endangered species) के अध्ययन का सुनहरा अवसर खो दिया था।
विभाग (Department) ने कछुओं पर अध्ययन और अनुसंधान करने के लिए विशेषज्ञों को आमंत्रित करने के बजाय उन्हें झील में छोड़ दिया। जिससे उनके जीवित रहने की संभावना कम हो गई थी। अधिकारियों ने दावा किया था कि अंडे सेने के दृश्य को देखकर “अभिभूत” हो गए। लेकिन विडंबना यह रही थी कि बेबी टर्टल को ये जानते हुए झील में छोड़ दिया था कि ये मछलियों की विभिन्न प्रजातियों का घर भी है, जो बेबी टर्टल का शिकार भी कर सकती हैं।
बता दे कि विभाग द्वारा अंडों को अलग-अलग जगह पर जमीन में दबा दिया गया था, अवधि पूरी होने के बाद ही इन्हे निकाला गया था। उड़ीसा, तमिलनाडु और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह सहित कुछ राज्यों ने कछुओं के अंडे सेने (Hatchlings) के लिए कुछ संरक्षित क्षेत्र स्थापित किए हैं, लेकिन फिर भी उनकी जीवित रहने की दर बहुत कम है।
इसी वजह से भी श्री रेणुका जी झील (Shri Renuka Ji Lake) में कछुओ से जुड़ा शोध काफी मायने रखता है। रेणुका जी में पैदा हुई प्रजाति विश्व संरक्षण संघ की लाल सूची में शामिल है। संवेदनशील प्रजातियों (endangered species) को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 1 में सूचीबद्ध किया गया है, जिसमें कछुए का व्यापार और अवैध शिकार सख्ती से प्रतिबंधित है।