“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…” 19 दिसंबर, 1927 में एक क्रांतिकारी को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर की जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया था. इस क्रांतिकारी का नाम था रामप्रसाद बिस्मिल. लेकिन, फांसी के फंदे पर लटकाए जाने से पहले बिस्मिल की ज़ुबां पर थीं ये पंक्तियां: ‘
”सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है”
‘मैनपुरी षड्यंत्र’ में भी अहम रह चुके बिस्मिल को क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन जुटाने की कवायद के तौर पर लखनऊ के काकोरी स्टेशन के पास सरकारी ख़ज़ाना लूटने के मामले में फांसी की सज़ा मिली थी. इस दौरान उन्होंने सज़ा के अमल वाले दिन फांसी पर चढ़ने से पहले ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है’ वाला शेर बहुत ही जोश और गौरव से गाया था.
इस कविता को गाकर उन्होंने अंग्रेज़ों को चेता दिया था कि भारत की आज़ादी के दिन अब बहुत दूर नहीं. रामप्रसाद बिस्मिल ने इस शेर को कुछ इस अंदाज़ से गाया था कि आने वाली कई पीढ़ी ने इस ग़ज़ल को उन्हीं का समझा. यहीं नहीं, एक लंबे अरसे तक क्रांतिकारियों ने इस गीत को को गुनगुनाकर आज़ादी का सुहावना सपना देखा था.
यह कविता भले ही रामप्रसाद बिस्मिल ने मशहूर की थी, लेकिन इसके असली लेखक अज़ीमाबाद (अब पटना) के मशहूर शायर ‘बिस्मिल अज़ीमाबादी’ हैं.मशहूर शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी ने ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ 1921 में लिखी, जिसमें कुछ सुधार के बाद इसे संभवतः पहली बार 1921 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के दौरान गाया गया था. 1922 में ये ग़ज़ल अब्दुल गफ्ऱखार की पत्रिका सबाह में भी छपी थी.
क्रांतिकारी बिसमिल: एक शायर, साहित्यकार और एक इतिहासकार
11 जून, 1897 में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर ज़िले में जन्मे क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने भारत की आजादी के लिए संघर्ष किया था. कहा जाता है उन्होंने साल 1913 में अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की थी। इस दौरान वह उस समय के आर्य समाज और वैदिक धर्म के प्रमुख प्रचारकों में से एक भाई परमानंद, जो गदर पार्टी में सक्रियता के बाद हाल ही में वापस स्वदेश लौटे थे. इन्हें गिरफ़्तार कर गदर षड्यंत्र मामले में फांसी की सज़ा सुनाई गई थी.
रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी रूप से तो लोग परिचित हैं, लेकिन इस बात को बहुत का लोग ही जानते हैं कि वह संवेदशील कवि या शायर, साहित्यकार व इतिहासकार होने के साथ-साथ एक मल्टी-लिंगुअल (Multi-lingual) ट्रांसलेटर थे. उन्होंने अपने लेखन और कविता संग्रह में ‘बिस्मिल’ नाम के अलावा दो उपनाम ‘राम’ और ‘अज्ञात’ नाम का भी इस्तेमाल किया है.
मशहूर एक्टर राजेश खन्ना की फ़िल्म का एक मशहूर डायलॉग है कि, ‘जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए’. ये बात बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों पर बहुत सटीक बैठती है. बिस्मिल ने अपने तीस साल के जीवन में कुल 11 पुस्तकें प्रकाशित की थीं, लेकिन अंग्रेजों ने उनकी सारी पुस्तकें ज़ब्त कर ली.
पुस्तकों की बिक्री से मिले पैसे से खरीदे थे हथियार
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रामप्रसाद बिस्मिल को एक चीज बहुत खास बनाती है। दरअसल, उन्होंने अपने ज़रूरी हथियारों की खरीद अपने पुस्तकों की बिक्री से मिले पैसों से की थी. बिस्मिल के विषय में ये भी कहा जाता है कि उन्होंने अहमदाबाद के अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहानी के साथ मिलकर कांग्रेस की साधारण सभा में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित करवाने में अहम योगदान दिया था.
वह ‘असहयोग आंदोलन’ को सफल बनाने के लिए अपनी ओर से पूर्ण प्रयास में थे, लेकिन चौरीचौरा कांड के बाद अचानक असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद देश में फैली निराशा को देखकर उनका कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयासों से विश्वास सा ही उठ गया. इस बाद बिस्मिल ने चंद्रशेखर ‘आजाद’ के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ मिलकर अंग्रेज़ों से लोहा लेना शुरू कर दिया. इस संघर्ष की लड़ाई में उन्हें हथियारों जैसी ज़रूरत के लिए पैसों की कमी महसूस हुई और इसी कड़ी में काकोरी कांड होता है.
9 अगस्त, 1925 को बिस्मिल ने अशफ़ाक उल्लाह ख़ान, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रौशन सिंह और अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर काकोरी में ट्रेन से ले जाया जा रहे सरकारी ख़जाने की लूट को अंजाम दिया.
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दुर्भाग्यवश वह 26 सितंबर, 1925 को पकड़ गए और उनपर मुकदमा चलाया गया. काकोरी ट्रेन लूटपाट के लिए उन्हें फांसी की सज़ा दे दी गई, उनके साथ उनके साथियों अशफ़ाक उल्लाह खान, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रौशन सिंह को भी फांसी की सज़ा मिली. लेकिन, अपने आखिरी समय में भी इन चंद लाइनों को कुछ इस जोशीले अंदाज़ में गाया कि आज भी कई लोग सरफ़रोशी की तमन्ना को उनकी ही रचना समझते हैं.
रामप्रसाद बिस्मिल का आज़ादी की लड़ाई में अहम योगदान है जिनके बारे में जानकार कई पीढियां गर्व महसूस करेंगी.