किसी भी देश की बेहतरीन कंपनी वही होती है जो अपने फायदे से पहले देश के फायदे के बारे में सोचे और काम करे. ऐसी कंपनियों के दम पर ही किसी भी देश की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है. भारत की कुछ कंपनियां ऐसी ही हैं जिन्होंने ना केवल अपना नाम बनाया बल्कि देश की आर्थिक स्थिति को भी संभाले रखा.
1. टाटा समूह
टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा इंडियन इंडस्ट्री के पिता के रूप में जाने जाते हैं. 1870 के दशक में एक कपड़ा मिल के साथ अपनी उद्यमशीलता की यात्रा शुरू करने वाले जमशेदजी टाटा के विजन ने भारत में स्टील और पावर इंडस्ट्रीज़ को मोटिवेट किया, तकनीकी शिक्षा की नींव रखी और देश को औद्योगिक राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल करने अपना योगदान दिया.
बता दें कि जमशेदजी टाटा द्वारा देश की उन्नति के लिए स्थापित किया गया टाटा समूह वर्तमान में विश्व स्तर पर दस इंडस्ट्रीज़ में कुल 31 कंपनियां चला रहा है. जमशेदजी टाटा सिर्फ एक उद्यमी नहीं थे, जिन्होंने भारत को औद्योगिक देशों की लीग में अपनी जगह बनाने में मदद की. वह एक देशभक्त और मानवतावादी थे, जिनके आदर्शों और विजन ने एक असाधारण व्यापारिक समूह को आकार दिया.
2. महिंद्रा एंड महिंद्रा
देश के बंटवारे के बाद भारत की आर्थिक स्थिति चिंता का विषय थी. आर्थिक स्तर पर भारत को कुछ ऐसी मजबूती चाहिए थी जो उसे इतने बड़े देश की जिम्मेदारी संभालने की हिम्मत दे सके. इसी बीच दो भाइयों ने देश की आर्थिक स्थिति को मजबूती देने में अपना योगदान देने की कोशिश की. ये दो भाई थे जगदीश चंद्र महिंद्रा और कैलाश चंद्र महिंद्रा.
दोनों भाईयों ने 1945 में मलिक गुलाम मुहम्मद के साथ मिलकर महिंद्रा एंड मोहम्मद कंपनी की शुरुआत की थी. दोनों का सपना था इस कंपनी को एक बेहतरीन स्टील कंपनी बना कर देश को मजबूत करना लेकिन इसी बीच देश का बंटवारा हो गया. 15 अगस्त 1947 को देश के बंटवारे के साथ ही देश के साथ कंपनी के हिंदू-मुसलमान दोस्त भी बंट गए. पाकिस्तान बनने के साथ ही मलिक गुलाम मुहम्मद ने पाकिस्तान चले गए और वहां के पहले वित्त मंत्री और फिर पाकिस्तान के तीसरे गवर्नर जनरल बने.
मुश्किल तो थी लेकिन इसके बावजूद महिंद्रा बंधुओं ने ने अपनी हिम्मत बनाए रखी और कंपनी को आगे बढ़ाने का फैसला किया. आज महिंद्रा एंड महिंद्रा ग्रुप की कुल संपत्ति 22 बिलियन है. इस ग्रुप का कारोबार आज 100 देशों में फैला हुआ है. 150 कंपनियों के साथ महिंद्रा एंड महिंद्रा ग्रुप ने ना केवल देश की आर्थिक स्थिति को सहारा दिया है बल्कि 2.5 लाख से ज़्यादा लोगों को रोजगार भी दिया है.
3. कलकत्ता केमिकल कंपनी
भारतीय उद्यमी और कलकत्ता केमिकल कंपनी के मालिक खगेंद्र चंद्र दास के नेतृत्व में उनकी कंपनी ने बहुत से प्रसिद्ध स्वदेशी प्रोडक्ट बनाए. इन सबमें मार्गो के प्रोडक्ट्स ने खूब प्रसिद्धि प्राप्त की. बंगाल के एक संपन्न बैद्य परिवार में जन्मे खगेंद्र चंद्र दास के पिता राय बहादुर तारक चंद्र दास एक न्यायाधीश थे. भले ही दास के पिता एक प्रतिष्ठित पद पर थे लेकिन उन पर पिता से ज़्यादा अपनी देशभक्त मां का प्रभाव पड़ा.
इसी देशभक्ति का असर था कि उन्होंने एक स्वदेशी साबुन बना कर अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी. दास ने आर.एन. सेन और बी.एन. मैत्रा के साथ मिलकर 1916 में कलकत्ता केमिकल कंपनी शुरू की. 1920 तक दास ने अपनी कंपनी का विस्तार कर लिया और टॉयलेट में इस्तेमाल होने वाली सामग्री बनाना शुरू कर दिया. इस सामग्री निर्माण में कंपनी बहुत कामयाबी साबित हुई. स्वदेशी सामग्री को बढ़ावा देने के लिए दास ने नीम के पत्तों के रस से भारतीय उत्पाद बनाने की प्रक्रिया के साथ इसकी मार्केटिंग शुरू कर दी.
इस तरह दास के प्रयासों से भारत के दो स्वदेशी ब्रांड, मार्गो साबुन और नीम टूथपेस्ट की शुरुआत हुई. दास ने अपने इन उत्पादों की कीमत काफी कम रखी ताकि इसे देश का हर वर्ग आसानी से खरीद सके. उन्होंने लैवेंडर ड्यू पाउडर सहित कई अन्य उत्पादों का निर्माण किया और इसे मार्केट में अच्छी पहचान दिलाई.
केसी दास ना सिर्फ स्वदेशी उत्पाद बेचे बल्कि पूरी तरह से इनका इस्तेमाल भी किया. अमेरिका और जापान की यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने केवल खादी के वस्त्र ही पहने. सन 1965 में जब दास ने इस दुनिया से विदा ली तब तक उनकी कंपनी दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सबसे प्रसिद्ध बिजनेस में से एक बन गई थी. दास द्वारा बनाए गए मार्गो साबुन को बाजार में आए 100 साल हो गए हैं.
4. ओबेरॉय होटल्स
मात्र 6 महीने की उम्र में अपने पिता को खोने के बाद मोहन सिंह ओबेरॉय को उनकी मां ने बड़ी मुश्किल से पाला. पढ़ाई पूरी होते ही मोहन सिंह ने नौकरी के लिए हर दरवाजा खटखटाया लेकिन उनकी किस्मत का दरवाजा कहीं नहीं खुला. एक जूता बनाने वाली फैक्ट्री में मजदूरी भी की लेकिन वो फैक्ट्री भी बंद हो गई.
समय बीतता रहा मगर उनके जीवन में कोई सुधार न आया. इसी बीच किस्मत उन्हें शिमला ले गई. जाने से पहले उनकी मां ने उन्हें 25 रुपये दिए जिसके दम पर वह शिमला पहुंचे. यहां उन्हें 40 रुपए महीने पर उस समय के सबसे बड़े होटल सिसिल में क्लर्क की नौकरी जरूर मिल गई. यहीं से उनकी किस्मत बदली.
14 अगस्त 1935 को मोहन सिंह ने उसी होटल को 25000 में खरीद लिया जहां वह नौकरी करते थे. इसके बाद तो उन्होंने ऐसी रफ्तार पकड़ी कि अपनी मौत से पहले अरबों का होटल साम्राज्य खड़ा कर दिया. इस तरह मोहन सिंह ओबेरॉय ने भारत के सबसे बड़े होटल उद्योग ओबेरॉय होटल्स की नींव रखी. ओबेरॉय होटल्स आज ना केवल एक बड़ा नाम ही नहीं बल्कि देश की उन्नति में आर्थिक रूप से योगदान करने वाली कंपनी भी बनी.
5. डाबर
डाबर की शुरुआत साल 1884 में कलकत्ता के एक आयुर्वेदिक डॉक्टर डॉ एस के बर्मन ने की थी. देश जब हैजा और मलेरिया जैसी बीमारियों के आगे पस्त हो रहा था उस दौर में उन्होंने आयुर्वेद की मदद से इन रोगों में कारगर साबित होने वाली दवाइयां बनाईं. इसके बाद 1884 ही वो साल था जब डॉ बर्मन ने आयुर्वेदिक हेल्थकेयर प्रोडक्ट बनाने की शुरुआत की. दरअसल उनकी ये शुरुआत ही डाबर जैसे हेल्थ केयर बिजनेस की नींव थी.
डॉ बर्मन अपने नाम से डाक्टर का ‘डा’ और बर्मन का ‘बर’ लेकर इस ब्रांड को नया नाम दिया डाबर. डॉ साहब कहां जानते थे कि उनके द्वारा रखा गया ये नाम एक दिन पूरे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपना नाम करेगा. हाथ से ही जड़ी बूटियां कूट कर अपने उत्पाद बनाने वाले डॉ बर्मन के प्रोडक्ट 1896 तक इतने लोकप्रिय हो गए कि उन्हें एक फैक्ट्री लगानी पड़ी.
डाबर धीरे धीरे सफलता की ऊंचाइयां छूने की तरफ बढ़ रहा था लेकिन उन्हीं दिनों 1907 में डॉ एस के बर्मन डाबर को अपनी अगली पीढ़ी के हाथों में सौंप कर हमेशा के लिए इस दुनिया से चल बसे. कलकत्ता की तंग गलियों में शुरू हुआ डाबर का सफर 1972 में दिल्ली के साहिबाबाद की विशाल फैक्ट्री, रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर तक पहुंच चुका था. आज के समय में बर्मन परिवार की टोटल नेट वर्थ 11.8 बिलियन डॉलर हो गई है. इसके साथ ही डॉ बर्मन के डाबर ने देश को पहला हेल्थ केयर व्यापार दिया. जिसके बाद स्वदेशी समान पर लोगों का विश्वास मजबूत हुआ.