आज Bajaj के नाम से कौन नहीं वाकिफ. बात इलेक्ट्रिक मार्किट की हो, ऑटो सेक्टर की हो या फाइनेंस की हर जगह Bajaj के नाम का सिक्का चलता है. बजाज स्कूटर से जहां हमारे बचपन की यादें जुड़ी हैं, वहीं बजाज के पंखों ने हमें गर्मी से राहत दी. बेशक दिवंगत राहुल बजाज ने इस ब्रांड को ऊपर उठाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो लेकिन बजाज नामक इस साम्राज्य की नींव रखने का श्रेय एक स्वतंत्रता सेनानी को जाता है.
हम आज आपको उसी स्वतंत्रता सेनानी की कहानी बताने जा रहे हैं जिन्होंने खुद को देश की आजादी के लिए पूरी तरह से समर्पित कर दिया. इसके साथ ही उन्होंने बजाज जैसा एक ऐसा रास्ता बनाया जो सफलता की बुलंदियों तक जाता था. हम बात कर रहे हैं सेठ जमनालाल बजाज की. वो जमनालाल जिन्हें गांधी जी का 5वां बेटा कहा जाता था.
जन्म से गरीब मगर किस्मत के धनी
4 नवंबर, 1884 को राजस्थान (तब जयपुर रियासत) के सीकर जिले के ‘काशी का बास’ में जन्मे जमनालाल बचपन से सेठ नहीं थे. वह एक गरीब परिवार में अपने माता पिता के तीसरे पुत्र के रूप में पैदा हुए थे. उनके पिता कनीराम एक गरीब किसान और माता बिरदीबाई गृहणी थीं. जमनालाल का जन्म भले ही गरीबी में हुआ था लेकिन गरीबी उनका मुकद्दर नहीं थी. आज शायद जमनालाल के बारे में कोई न जानता अगर उन्हें वर्धा के सेठ बच्छराज ने गोद न लिया होता. उस समय 5 साल के जमनालाल चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे जब सेठ बच्छराज ने उन्हें अपने पोते के रूप में गोद ले लिया और अपने साथ वर्धा ले आए.
जमनालाल बने सेठ जमनालाल बजाज
जमनालाल एक दिन अपने घर के बाहर तेज धूप में खेल रहे थे. इसी दौरान रास्ते से गुजरते हुए सेठ बच्छराज ने देखा. सेठ जमनालाल पर आसक्त होकर रुक गए और उन्हें गॉड लेने का फैसला कर लिया. इसके बाद सेठ बछराज (बजाज) और उनकी पत्नी सादीबाई बछराज (बजाज) द्वारा एक पोते के रूप में अपनाया गया. ये दोनों एक अमीर राजस्थानी व्यापारी जोड़े थे लेकिन वर्धा, महाराष्ट्र में बस गए थे. सेठ बछराज ब्रिटिश राज में एक प्रसिद्ध और सम्मानित व्यापारी थे. इस तरह एक गरीब किसान का बेटा जमनालाल, सेठ जमनालाल बजाज बन गया.
इस तरह जमनालाल उन चंद खुशकिस्मत बच्चों में से एक बन गए जो गरीबी में पैदा होने के बावजूद किस्मत में अमीरी लिखवा कर आते हैं. हालांकि जमनालाल कभी भी अपनी इस अमीरी से खुश नहीं हुए न ही उन्होंने अन्य अमीरों की तरह ऐश ओ आराम की जिंदगी जीना पसंद किया. उनके लिए उनके पिता की दौलत कभी से मैने नहीं रखती थी. उन्हें पैसों की खनक लुभा न सकी और वह देश सेवा में लगे रहे. जब सेठ जमनालाल 13 वर्ष के थे तब उनका विवाह वर्धा की जानकी देवी से हो गया.
दौलत से नहीं था मोह
Jamnalal Bajaj was adopted by Seth Bachhraj, a rich merchant as grandson. In 1907, Bajaj renounced his claim from the material wealth of Seth by writing this letter. He wanted to serve his people & later established Bajaj for the purpose.#RahulBajaj
#बजाज_ने_बजा_दी pic.twitter.com/KDE0wdkg3B— Heritage Times (@HeritageTimesIN) December 2, 2019
सेठ जमनालाल का उनके पिता की दौलत से कितना मोह था इस बात का अंदाजा आप इस घटना से लगा सकते हैं. एक बार सेठ बच्छराज परिवार सहित एक शादी समारोह में जा रहे थे. ऐसे में हर कोई चाहता है कि उनका परिवार शाही दिखे. इसी मंशा से उन्होंने जमनालाल से कहा कि वो भी हीरे-पन्नों से जड़ा एक हार पहनकर चलें. लेकिन जमनालाल फकीर किस्म के इंसान थे, उन्हें दौलत का दिखावा बिल्कुल नहीं भाता था. इसी वजह से उन्होंने हार पहनने से मना कर दिया. इस बात को लेकर दोनों में ऐसी अनबन हुई कि जमनालाल घर छोड़कर चले गए. ये तब की बात है जब जमनालाल 17 साल के थे.
इतना ही नहीं बल्कि बाद में जमनालाल ने अपने पिता बच्छराज को एक स्टाम्प पेपर पर ये लिखकर भेजा कि उन्हें उनकी संपत्ति से कोई लगाव नहीं है. उन्होंने लिखा था कि, “मैं कुछ लेकर नहीं जा रहा हूं. तन पर जो कपड़े थे, बस वही पहने जा रहा हूं. आप निश्चिंत रहें. मैं जीवन में कभी आपका एक पैसा भी लेने के लिए अदालत नहीं जाऊंगा. इसलिए ये कानूनी दस्तावेज बनाकर भेज रहा हूं.’
हालांकि सेठ बच्छराज का अपने बेटे से मोह नहीं टूटा और उन्होंने तमाम कोशिशों के बाद जमनालाल को ढूंढ़ लिया. इसे बाद उन्हें घर आने के लिए मनाया गया और वह घर आ गए लेकिन वो संपत्ति का त्याग कर चुके थे. इसके बाद जब विरासत में उन्हें संपत्ति मिली, तो उन्होंने उस संपत्ति को दान के रूप में ही खर्च किया.
देश को आजाद कराने में जुट गए
समाज सेवा के साथ साथ जमनालाल बजाज स्वाधीनता आंदोलन में भी बढ़ चढ़ कर योगदान देते रहे. हालांकि अपने धन के दम पर उन्होंने शुरुआत में अंग्रेजी सरकार की भी आर्थिक मदद की. उन्होंने पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार को आर्थिक सहयोग दिया था. जिसके बाद उन्हें मानद मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया. जब उन्होंने युद्ध कोष में धन दिया तो उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि से सम्मानित किया. हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को आर्थिक सहयोग देना बंद कर दिया. 1921 में जब वह असहयोग आंदोलन से जुड़े तब उन्होंने अपनी राय बहादुर की उपाधि अंग्रेजी सरकार को वापस लौटा दी.
स्वतंत्रता संग्राम में जुडने के साथ ही उनकी पहली मुलाकात पंडित मदन मोहन मालवीय से हुई. 1906 में जब बाल गंगाधर तिलक ने अपनी मराठी पत्रिका का हिंदी संस्करण निकाला तो जमनालाल बजाज ने अपने जेब खर्च से उन्हें 100 रुपए दिए थे.
बने गांधी जी के पांचवें बेटे
सेठ जमनालाल बजाज को सबसे ज्यादा महात्मा गांधी ने प्रभावित किया. जब गांधी जी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस लौटने तो साबरमती में आश्रम बनाया. सेठ जमनालाल इस आश्रम में उनके साथ ही रहे. 1920 में नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ. उस अधिवेशन में जमनालाल ने अजीब सा प्रस्ताव रख दिया. दरअसल, जमनालाल गांधी जी को एक पिता के रूप में अपनाना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने प्रस्ताव में कहा कि वो गांधीजी को अपने पिता के रूप में गोद ले कर उनके 5वें बेटे बनना चाहते हैं.
शुरुआत में गांधीजी के लिए भी ये प्रस्ताव हैरान कर देने वाला था लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने जमनालाल को अपना 5वां बेटा मान ही लिया. 16 मार्च 1922 को साबरमती जेल से गांधीजी ने जमनालाल को भेजी एक चिट्ठी में लिखा, तुम 5वें पुत्र तो बने ही हो, लेकिन मैं योग्य पिता बनने की कोशिश कर रहा हूं.
सेठ जमनालाल के मन में गांधी जी का बेटा बनने की ऐसी बेचैनी थी कि वो उनके मुंह से किसी और रिश्ते का संबोधन सुन कर चिढ़ जाते थे. एक बार गांधीजी ने जमनालाल को एक चिट्ठी लिखी और उसमें चिरंजीवी जमनालाल की जगह भाई जमनालाल लिख दिया. भाई के संबोधन से जमनालाल नाराज हो गए थे.
बजाज ग्रुप की स्थापना
1920 के दशक में सेठ जमनालाल बजाज ने व्यापार की भूमि पर एक ऐसा बीज बोया जो आज व्यापार जगत का एक सघन वृक्ष बन चुका है. उन्होंने अपनी शुगर मिल के जरिए Bajaj Group की शुरुआत की. जमनालाल बजाज द्वारा शुरू किये गए इस ग्रुप की आज 25 से ज्यादा कंपनियां हैं, जिनका सालाना टर्नओवर 280 अरब रुपए से ज्यादा है.
सेठ जमनालाल बजाज एक उद्योगपति और स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं बल्कि समाज सेवक भी थे. उन्होंने निर्धन परिवार के बच्चों की शादियां करवाईं. इस वजह से गांधी जी स्नेह से उन्हें ‘ शादी काका’ भी कहते थे. 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में जेल से रिहाई के बाद जमनालाल वर्धा लौट आए. 11 फरवरी 1942 को मस्तिष्क की नस फट जाने के कारण सेठ जमनालाल इस दुनिया को अलविदा कह गए. उनकी स्मृति में सामाजिक क्षेत्र में सराहनीय कार्य करने के लिए ‘जमनालाल बजाज पुरस्कार’ की स्थापना की गई.