लोगों की जिंदगी में मिठास घोलने वाली चीनी के बिना इंसान का जीवन फीका हो जाता है. ये चीनी बिना किसी विटामिन-मिनरल के ही, सिर्फ अपनी मिठास के दम पर लोगों की फेवरेट बनी हुई है. शक्कर से बनने वाली इस चीनी को कभी ‘सफेद सोना’ भी कहा जाता था. सालों तक इस चीनी को लोग राशन कार्ड पर लेते रहे हैं. आज भी जब बात महंगाई की आती है तो सबसे ज्यादा फिक्रमंद करने वाले राशन के समान में चीनी का नाम ऊपर होता है.
भारत ने दुनिया को दी शक्कर
दुनिया भर की रिपोर्ट्स में ये माना गया है कि गन्ने के रस से गुड़ और फिर शक्कर को बनाने की शुरुआत भारत में सबसे पहले हुई थी.यूके स्थित The Conversation नामक मीडिया आउटलेट नेटवर्क में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया कि ‘भारत में रासायनिक रूप से परिष्कृत चीनी लगभग 2,500 (500 ईसा पूर्व) साल पहले दिखाई दी थी. वहां से यह तकनीक पूर्व में चीन की ओर फैल गई, और पश्चिम में फारस और प्रारंभिक इस्लामी दुनिया की ओर होते हुए अंततः 13वीं शताब्दी में भूमध्यसागरीय तक पहुंच गई. साइप्रस और सिसिली चीनी उत्पादन के महत्वपूर्ण केंद्र बन गए.
‘नेचुरलिस हिस्टोरिया’ नाम से विश्वकोष लिखने वाले प्राकृतिक दार्शनिक व इतिहासकार प्लिनी द एल्डर ने लिखा था कि ‘चीनी अरब में भी बनाई जाती है, लेकिन भारतीय चीनी बेहतर है. यह बेंत (गन्ना) में पाया जाने वाला एक प्रकार का शहद है, जो मसूड़े की तरह सफेद होता है, और यह दांतों के बीच सिकुड़ता है.’
भारत से मध्य एशिया पहुंची
इसके अलावा ईसा पूर्व 7वीं शताब्दी में लिखे गए आयुर्वेदिक ग्रंथ ‘चरकसंहिता’ के ‘इक्षुवर्ग’ अध्याय में भी गन्ने से गुड़ व शक्कर बनाने की विस्तृत जानकारी दी गई है. इसमें बताया गया है कि शक्कर रूखी, कै, अतिसार को नष्ट करती है और शरीर में जमे हुए कफ को बाहर निकालती है. इसके और भी गुण बताए गए हैं. बताया जाता है कि पहली बार सातवीं सदी में अरब व्यापारियों के जरिए चीनी भारत से बाहर मध्य एशिया पहुंची, जहां इस पर शोधन के कई प्रयोग हुए. मिस्र के कारीगरों ने भूरी चीनी को दानेदार सफेद शक्कर, मिश्री की डली व बताशे बनाने की विधियां खोजी. यूरोप में यह 11वीं शताब्दी में पहुंची, लेकिन तब तक यह सफेद दानेदार चीनी में परिवर्तित नहीं हुई थी.
ऐसे मिली सफेद दानेदार चीनी
बताया जाता है कि 15वी शताब्दी तक दुनिया के अधिकांश लोग शक्कर की मिठास से अनजान थे. मीठे के नाम पर वे फलों के अलावा अलग से मिठास पाने के लिए शहद को जरिया मानते थे. चीनी के उत्पादन को मौका बनाया पुर्तगाली सौदागरों ने. 15वीं शताब्दी में वे करिबियन पहुंचे. यह इलाका गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त था और वहां शक्कर बनाने के लिए जंगलों में पर्याप्त ईंधन भी था. इसके बाद मजदूरों की कमी को पूरा करने के लिए पश्चिम अफ्रीका से अफ्रीकन लोगों को दास बनाकर करिबिया लाया गया. दासों का सिलसिला शुरू हुआ और 1505 में वहां पहली शुगर कॉलोनी खड़ी हो गई.
भारत में सफेद दानेदार शक्कर काफी समय तक उपलब्ध नहीं थी. यहां से लगातार कच्चा माल बाहर जाता तो था लेकिन सदियों तक सफेद चीनी बनाने की तकनीक भारत न पहुंच सकी. 13वीं सदी में इतालवी व्यापारी, खोजकर्ता व राजदूत मार्को पोलो के संस्मरणों में इस बात का जिक्र है कि चीन के बादशाह कुबलई खां ने मिस्र से कारीगर बुलवाए थे, जिन्होंने चीन के लोगों को सफेद, उजली, दानेदार शक्कर बनाना सिखाया. यह तकनीक मुगलकाल में चीन से भारत पहुंची और इसलिए चीनी कहलाती है. रिकॉर्ड के अनुसार भारत में पहली चीनी मिल 1610 में लगाई गई.