मालदार’ ये शब्द हमेशा किसी की अमीरी का बखान करने के लिए प्रयोग किया जाता है. लोग किसी धनवान के बारे में अक्सर कहते हैं ‘बड़ी ही मालदार पार्टी है.’ सोचिए जिसे एक बार मालदार कहा जाता है वो अमीर होता है तो जिसके सरनेम में ही मालदार जोड़ दिया गया हो उसके पास कितना धन रहा होगा.
हम यहां बात कर रहे हैं उत्तराखंड के पहले अरबपति के रूप में जाने गए दान सिंह बिष्ट उर्फ दान सिंह मालदार के बारे में. मालदार एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने गरीबी से उठ कर अपना उद्योग का साम्राज्य खड़ा किया. एक दो नहीं बल्कि व्यापार के कई क्षेत्रों में अपनी ऐसी छाप छोड़ी कि अंग्रेजी हुकूमत भी उनकी कद्रदान हो गई. लेकिन अफसोस की उनके खड़े किये साम्राज्य को ऐसी सरकारी दीमक लगी कि उनके जाते ही उनका नाम भी इतिहास के पन्नों में कहीं दब गया. तो चलिए आज हम उत्तराखंड के पहले अरबपति, भारत के टिंबर किंग, और एक दानवीर के नाम पर जमी धूल हटाते हुए आपको उनके बारे में बताते हैं:
दान सिंह से पहले देव सिंह से मिलिए
ये कहानी शुरू होती है उत्तराखंड के जिला पिथौरागढ़ के आसपास से. यहां से पूर्व में 36 किलोमीटर दूर काली नदी बहती है. ये काली नदी एक तरह से भारत और नेपाल का बॉर्डर रही है. इसके एक किनारे पर भारत का कस्बा झूलाघाट रहा है तो दूसरे किनारे पर नेपाल का कस्बा जूलाघाट है. इसी झूलाघाट में देश की आजादी से पहले देव सिंह बिष्ट नामक एक शख्स अपनी छोटी सी दुकान में घी बेचा करते थे. मूलतः देव सिंह के पूर्वज नेपाल के बैतड़ी जिले से थे लेकिन बाद में वे पिथौरागढ़ के क्वीतड़ गांव में आकर बस गए. इसके बाद से देव सिंह का परिवार यहीं पला बढ़ा.
देव सिंह के घर बेटे ने लिया जन्म
देव सिंह की कहानी दुनिया के करोड़ों आम लोगों की तरह ही बेहद साधारण है लेकिन इनकी ज़िंदगी में एकमात्र असाधारण चीज रही इंके बेटे का जन्म. 1906 में क्वीतड़ गांव में ही देव सिंह के घर उनके इस असाधारण बेटे ने जन्म लिया. हालांकि बच्चा तो साधारण ही था लेकिन नियति ने उसकी किस्मत ऐसी लिखी थी कि वह आगे चलकर असाधारण हो गया. देव सिंह ने बड़े प्यार से अपने बेटे का नाम दान सिंह बिष्ट रखा. देव सिंह का ये बेटा बचपन से ही एक तेज बुद्धि का बालक था. परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था शायद इसीलिए पढ़ाई के बजाए बच्चे ने काम करना ही सही समझा.
छोटी उम्र में देख लिए बड़े सपने
उस समय दान सिंह की उम्र यही कोई 12 साल रही होगी जब उन्होंने लकड़ी का व्यापार करने वाले एक ब्रिटिश व्यापारी के साथ बर्मा (आज के समय में म्यांमार) जाने का फैसला किया. हालांकि दान सिंह का ये फैसला सही साबित हुआ और बर्मा ने उनके लिए सफलता की पहली सीढ़ी के रूप में काम किया. यहां रहते हुए दान सिंह ने लकड़ी व्यापार की बारीकियों पर विशेष ध्यान दिया और इस व्यापार के बारे में खूब नॉलेज इकट्ठी की. लकड़ी के व्यापार में अर्जित की गई उनकी इसी कुशलता ने भविष्य में उन्हें टिबंर किंग आफ इंडिया की उपाधि दिलवाई.
पिता के साथ घी बेचा
हालांकि दान सिंह इतने मजबूत परिवार से नहीं थे कि आते ही अपना व्यवसाय शुरू कर दें. यही वजह थी कि उन्होंने बर्मा से लौटने के बाद अपने पिता के साथ घी के बेचने का काम किया. दूसरी तरफ दान से के दिल ओ दिमाग से बिजनेस शुरू करने का जुनून भी नहीं उतरा था. उन्होंने तय कर लिया था कि वह किसी ना तरह अपना व्यापार शुरू जरूर करेंगे. दान सिंह की खास बात यही थी कि वह सिर्फ सपने नहीं देखते थे बल्कि उन सपनों को पूरा करने के लिए पूरी तरह जुट जाते थे. उन्होंने बड़े सपने देखते हुए अपने छोटे काम को भुलाया नहीं बल्कि इसमें मन लगाया और घी बेच कर ही अच्छा खासा प्रॉफ़िट कमा लिया.
चीन से सीख कर चीन को ही दी मात
अब वह इस घी के व्यापार से मिले प्रॉफ़िट से कुछ नया करने की सोच रहे थे. इसी बीच उनके पिता ने उनके साथ मिलकर एक ब्रिटिश कंपनी से बेरीनाग में एक चाय का बगान खरीद लिया. दान सिंह की उम्र भले ही उस समय कम थी मगर उनके हौसले बुलंद थे. इन्हीं हौसलों के दम पर उन्होंने इस चाय बगान की पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाया ली. उनके सामने अब समस्या ये थी कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व के चाय व्यापार में चीन का एकछत्र राज था. उन दिनों जो चाय चीन में उगती थी वैसा स्वाद पूरे विश्व में किसी और देश की चाय का नहीं. लेकिन दान सिंह चुनौतियों को स्वीकार करने वाले इंसान थे.
उन्होंने सबसे पहले इस बात की जानकारी हासिल की कि चीन में चाय तैयार करने में किस प्रकार की प्रक्रिया का प्रयोग होता. इस प्रक्रिया को सीखने के बाद उन्होंने इसी के आधार पर अपने चाय का उत्पादन शुरू किया. गजब बात ये रही कि दान सिंह ने चीन से ही सीख कर चाय के व्यापार में चीन को ही निचले पायदान पर ला दिया. एक समय ऐसा आया जब बेरीनाग की चाय के जायके की प्रसिद्धी दूर दूर तक फैलने लगी. अब बेरीनाग की चाय सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि ब्रिटेन और चीन में भी अपने स्वाद डंका बजाय रही थी.
6000 लोगों को दिया रोजगार
गरीबी के दौर से गुजर रहे इस देश में उन दिनों जमींदारों और अंग्रेजों का राज था. गरीब आदमी फौज में भर्ती हो कर या अंग्रेजों की चाकरी कर के ही पेट भर सकता था. ऐसे गुलामी के दौर में इस शख्स ने अपनी मेहनत से लकड़ी समेत अन्य व्यापारों के जरिए दुनिया भर में नाम कमाया. चाय के व्यापार में सफल होने के बाद उन्होंने 1924 में ब्रिटिश इंडियन काॅपरेशन लिमिटेड नामक कंपनी से शराब की भट्टी खरीद ली. जहां उन्होंने अपने पिता और अपने लिए बंगला, कार्यालय व कर्मचारियों के रहने के लिए आवासों का निर्माण करवाया.
इस इलाके को बाद में ‘बिष्ट स्टेट’ के नाम से जाना गया. किंग आफ टिंबर के नाम से मशहूर हुए दान सिंह अविभाजित भारत में जम्मू कश्मीर, लाहौर, पठानकोट से वजिराबाद तक लकड़ी की बल्लियों की विशाल मंड़ियां स्थापित करने के बाद अपने लकड़ी व्यापार कश्मीर से लेकर बिहार व नेपाल तक फैलाया. अपने व्यापार द्वारा उस समय उन्होंने उत्तराखंड के साथ साथ देश के अन्य क्षेत्रों के लगभग 6000 लोगों को रोजगार दिया.
अपनी इसी दूरदर्शी सोच, मेहनत और अलग नजरिए के दम पर दान सिंह बिष्ट सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे थे. देखते ही देखते घी बेचने वाले का बेटा दान सिंह बिष्ट अब दान सिंह मालदार बन चुके थे. उन्होंने धीरे धीरे पिथौरागढ़ के अलावा टनकपुर, हल्द्वानी, नैनीताल, मेघालय, असाम तथा नेपाल के बर्दिया और काठमांडू तक में अपनी प्रॉपर्टी खरीद ली. उनके बुद्धि कौशल और व्यापार के बारे में उनकी सोच ने अंग्रेजों तक को अपना कायल कर लिया था.
जिम कार्बेट से हुई दोस्ती
ऐसे में उनकी दोस्ती जाने माने ब्रिटिश लोगों से हो गई थी. उनके दोस्तों में एक बड़ा नाम जिम कार्बेट का भी था जिन्हें ब्रिटिश काल के साहित्यकार, महान शिकारी और बाघों के संरक्षक के रूप में जाना गया. इनकी दोस्ती भी शिकार के कारण ही हुई. दान सिंह के लकड़ी व्यापार में काम करने वाले कर्मचारी अक्सर लकड़ियों की तलाश में दूर दराज के जंगलों में जाते रहते थे.
ये वो समय था जब इन क्षेत्रों में आदमखोर जानवरों का बहुत अधिक आतंक था. बाद में बाघों के रक्षक बन गए कार्बेट को उस समय उनके शिकार के लिए जाना जाता था. यही वजह थी कि इन बाघों से बचाव के लिए हमेशा जिम कार्बेट को बुलाया जाता. वह जब भी नैनीताल के भाभर क्षेत्र में शिकार के लिए आते तो उनका रहना दान सिंह के यहां ही होता. इसी मेहमान नवाजी ने कार्बेट और दान सिंह की दोस्ती मजबूत कर दी.
खरीदी राजा गजेन्द्र सिंह की संपत्ति
दान सिंह उस समय तब काफी चर्चा में आए थे जब 1945 में उन्होंने मुरादाबाद के राजा गजेन्द्र सिंह की जब्त हुई संपत्ति को 2,35,000 रुपये में खरीद लिया था. राजा गजेन्द्र सिंह के ऊपर अंग्रेजी सरकार का इतना कर्ज हो चुका था कि उनकी संपत्ति जब्त कर के नीलाम कर दी गई. मालदार ये नहीं चाहते थे कि ये संपत्ति किसी अंग्रेज के कब्जे में जाए इसलिए उन्होंने इसे खरीद लिया. दान सिंह मालदार ने अपनी दौलत बढ़ने के साथ देश भर में उद्योग जगत का साम्राज्य स्थापित कर लिया था. उनका उद्योग अब देश की सीमा से बाहर भी फैलना लग गया था.
दानवीर ने दिल खोल कर किया दान
अपनी इस अमीरी को उन्होंने केवल खुद के ऊपर ही नहीं खर्च किया बल्कि इसकी मदद से उन्होंने अपने नाम के साथ दानवीर भी जोड़ लिया. जन कल्याण के लिए उन्होंने कई स्कूल, अस्पताल और खेल के मैदान बनवाए थे. उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र बेहतरीन काम किया. देश आजाद तो हो चुका था लेकिन देश का भविष्य तैयार करने वाले बच्चों की शिक्षा अधर में लटकी हुई यही.
स्कूलों की बहुत कमी के कारण लोग अपने बच्चों को पढ़ाने पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे थे. तेज बुद्धि के बच्चे भी स्कूलों की दूरी के कारण पढ़ नहीं पाते थे. ऐसे में दान सिंह ही थे जो आगे आए और इस समस्या पर ध्यान दिया. उन्होंने 1951 में नैनीताल वेलेजली गर्ल्स स्कूल को खरीद कर इसका पुनःनिर्माण कराया और अपने पिता स्व. देव सिंह बिष्ट के नाम से यहां एक काॅलेज की शुरुआत की.
इस कॉलेज के लिए उन्होंने उन दिनों 15 लाख मूल्य की 12 एकड़ से अधिक जमीन और 5 लाख रुपये दान में दिए थे. इसके अलावा उन्होंने अपने स्व. पिता के नाम से ठाकुर देव सिंह बिष्ट काॅलेज बनवाया, कुमाउ विश्वविद्याालय का मुख्य परिसर महाविद्याालय बनावाया. इसके अलावा उन्होंने पिथौरागढ़ में अपनी मां और पिता के नाम से सरस्वती देव सिंह उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का निर्माण किया.
इस स्कूल को बनवाने के बाद उन्होंने स्कूल के पास की जमीन खरीद कर एक खेल के मैदान भी बनवाया. ये वही मैदान है जिसने अनेक ऐसी प्रतिभाओं को जन्म दिया जिन्होंने अतंर्राष्ट्रीय स्तर ख्याति प्राप्त की. इसके अलावा उन्होंने अपनी मां के नाम पर छात्रों के लिए एक छात्रवृती देने वाले ट्रस्ट की शुरुआत की जिसे श्रीमती सरस्वती बिष्ट छात्रवृति बंदोबस्ती ट्रस्ट के नाम से जाना गया.
यह ट्रस्ट आज भी अपने लक्ष्य में कार्य कर रहा है. इसी ट्रस्ट ने द्वितीय विश्वयुद्ध में पिथौरागढ़ के शहीद हुए सैनिकों के बच्चों को पढ़ने के लिए छात्रवृति प्रदान की.
सरकार ने फेरा सपनों पर पानी
दान सिंह ने बहुत धन संपत्ति अर्जित की, बहुत दान किये लेकिन आज उनके नाम से ज्यादा लोग परिचित नहीं हैं. इसकी वजह ये है कि उनके निधन के बाद उनकी संपत्ति को संभालने वाला कोई ना बचा और ना ही उनके जीते जी आजाद भारत में उन्हें किसी तरह की सरकारी मदद मिली.
मालदार दान सिंह बिष्ट की कम्पनी डी.एस. बिष्ट एंड संस ने सन 1956 में किच्छा में ‘बिष्ट इंडस्ट्रियल कारपोरेशन लिमिटेड’ नाम से एक शुगर मिल शुरू करने के लिए लाइसेंस लिया था. उनकी ये शुगर फैक्ट्री उनके व्यापार में तो उन्हें गति देती ही इसके साथ ही ये लगभग 2000 टन प्रतिदिन की क्षमता वाली मिल किसानों के हित में बहुत लाभकारी सिद्ध होने वाली थी.
भारत की आजादी के बाद मालदार दान सिंह बिष्ट को ये उम्मीद थी कि भारत सरकार किच्छा शुगर मिल के लिए मुर्शिदाबाद से लायी जा रही मशीनरी को किच्छा लाने में छूट मिल जाएगी. लेकिन उनके इस सपने पर पानी तब फिर गया जब कलकत्ता के बंदरगाह में जहाज में लदी इस मशीनरी को जहाज से नीचे उतारने की अनुमति नहीं दी गई.
मशीनरी इतनी महंगी थी कि दोबारा इसे खरीदने के लिए उन्हें कर्ज उठाना पड़ा लेकिन इसके बावजूद वह एक दिन भी किच्छा शुगर मिल को चला नही पाए. स्थिति ये हो गई कि उन्हें इस शुगर मिल के शेयर बेचने पड़े. यही घटना मालदार के तनाव और फिर उनकी बीमारी की वजह बनी.
दान सिंह के जाते ही बिखर गया साम्राज्य
इस तरह मालदार दान सिंह बिष्ट 10 सितंबर सन 1964 में इस दुनिया को अलविदा कह गए. कुमाउ के इस उभरते बिजनेसमैन का बिजनेस देश ही नहीं बल्कि ब्राजिल तक में विस्तार लेने लग गया था. अंग्रेजी हुकूमत ने भी उनकी व्यापार कौशलता को सम्मान दिया लेकिन भारत की आजादी के बाद अपनी ही देश की सरकार ने उन्हें कम आंका.
दान सिंह बिष्ट के कोई बेटा नहीं था और उनकी बेटियां कम उम्र की थीं जिस वजह से उनके बाद उनकी कंपनी डी. एस. बिष्ट एंड संस की जिम्मेदारी उनके छोटे भाई मोहन सिंह बिष्ट और उनके बेटों ने संभाली. लेकिन किसी में भी दान सिंह जैसी व्यापारीक कौशलता नहीं थी जिस वजह से उनका खड़ा किया हुआ विशाल व्यापार साम्राज्य सिमटता चला गया.
धीरे-धीरे डी. एस. बिष्ट एंड संस कम्पनी मंदी के आगोश में समाती गई और ऐसे ही एक साधारण घी बेचने वाले के बेटे द्वारा खड़ा किया गया साम्राज्य पुनः मिट्टी हो गया.
बता दें कि दान सिंह के जीवन पर जगमणि पिक्चर्स द्वारा एक हिंदी फिल्म भी बनाई गई थी. मालदार नामक इस फिल्म ने हिमालायी हिस्सों में धूम मचाने के साथ साथ पूरे भारत में बहुत अच्छा कारोबार किया था. खास बात ये है कि दान सिंह के जीवन पर आधारित इस फिल्म को बनाने के लिए दान सिंह से ही 70,000 रुपये उधार लिए गए थे.
आज भले ही दान सिंह मालदार का नाम बहुत लोग नहीं जानते, भले ही उनका साम्राज्य खत्म हो गया लेकिन उन्होंने जो जन कल्याण किये उनके द्वारा आज भी उन्हें याद किया जाता है और आज भी उन्हें लोग सम्मान देते हैं. आशा करते हैं हमारे इस लेख के माध्यम से कुछ लोग इस नायक के बारे में जान पाएंगे.
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