ऐतिहासिक सारगढ़ी युद्ध: जब 10,000 अफगानों के खिलाफ 21 सिख सैनिक खड़े हुए

आज के समय में भले ही आपने सरदारों पर सबसे ज्यादा चुटकुले सुने हो! किन्तु, सच तो यही है कि दूसरों की मदद के लिए आगे आने की बात हो। या फिर अपनी मिट्टी के लिए खुद को समर्पित करने का जज्बा।

हर स्थिति में यह समुदाय सबसे आगे नज़र आता है। मार्च, 2019 में आई अक्षय कुमार की फिल्म ‘केसरी‘ में जिस तरह से 21 सिख सैनिकों ने अफ़गान के दस हजार सैनिकों को घुटने पर लाकर खड़ा कर दिया।

वह यह बताने के लिए काफी है कि क्यों सिखों की जुबान पर यह पंक्ति तरूनुम बनकर रहती हैं कि- “सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं”

दिलचस्प बात तो यह है कि अपनी कहानी के कारण सुर्खियां बटोरने वाली यह फिल्म एक सच्चे युद्ध से प्रेरित है। वह युद्ध कौन सा था और क्यों लड़ा गया!

युद्ध का नाम था सारगढ़ी!

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युद्ध का नाम सारगढ़ी, इसलिए था क्योंकि इसका केंद्र बिंदु सारगढ़ी गांव था। युद्ध क्यों हुआ! इसके जवाब के लिए हमें 1897 के दौर में लौटना पड़ेगा। यह वह समय था, जब एक तरफ पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरु हो चुका था। दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार भारत के बाहर के इलाकों पर अपना परचम लहराना चाहता था।

खास तौर पर अंग्रेज खैबर व उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अपना कब्जा चाहते थे। असल में एक समय में ये क्षेत्र उन्हीं के पास हुआ करते थे। मगर, कुछ अफ़गानी कबीलों ने उन पर कब्जा कर, वहां अपना झंड़ा लहरा दिया था। मसलन, अंग्रजों ने अफ़गानियों पर हमले शुरू कर दिए।

अफगान अंग्रजों के इस रवैए से परेशान हो चुके थे। लिहाजा, उन्होंने तय किया कि वह अंग्रेजों को मुंह तोड़ जवाब देंगे। इसके लिए उन्होंने उन दोनों किलों को टारगेट किया, जो अंग्रेजों की रीढ़ तोड़ सकते थे। ये दोनों किले भारत-अफ़गान सीमा पर विपरीत छोर पर थे।

पहले किले का नाम था लॉकहार्ट, जोकि ब्रिटिश सेना का बेस था। वहीं दूसरे किले गुलिस्तान पर ब्रिटिश सेना का संचार सिस्टम था। ऐसे में अफगान अगर इन दोनों पर कब्जा जमा लेते, तो अंग्रेजों को झुकना पड़ता।

1000 अफगान बनाम  21 सिख

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यही कारण रहा कि 12 सितंबर 1897 को अफगानों ने योजनाबद्ध तरीके से सारागढ़ी पर हमला बोल दिया। वह करीब 10,000 की संख्या में थे।

वहीं, उनको रोकने के लिए हवलदार ईशर सिंह के साथ सिर्फ 20 अन्य सिख सिपाही मौजूद थे। दुश्मन बड़ी संख्या में थे, इसलिए ईशर सिंह ने कमांडर हॉटन को इसकी खबर दी। हॉटन ने जवाब दिया, सहायता टुकड़ी पहुंचने में समय लेगा। आपको अपने साथियों के साथ तब तक मोर्चा संभालना पड़ेगा।

सिख योद्धाओं के लिए यह ‘करो या मरो’ की स्थिति थी। मसलन, उन्होंने तय किया कि वे आखिरी सांस तक लड़ेगें। साथ ही इस पर भी रणनीति बनी कि कैसे दुश्मन को ज्यादा से ज्यादा देर तक रोक कर रखा जा सके।

युद्ध की शुरुआत से ही सिख सिपाही मजबूती से दुश्मन को जवाब दे रहे थे। मगर बीतते समय के साथ हथियार और बारूद खत्म होने लगे थे। इसका फायदा दुश्मन ने उठाया और किले का गेट तोड़ने की कोशिशें शुरु कर दी।

वे इसमें सफल नहीं हुए तो उन्होंने आसपास की झाड़ियों में आग लगा दी। इससे उन्हें दीवार में सेंध लगाने में सहायता मिली। अगली कड़ी में वे किले की दीवार तोड़कर अंदर बढ़ गए।

अब धीरे-धीरे अफगान सिख सिपाहियों पर भारी पड़ने लगे थे। दूसरी तरफ कई सिख सैनिकों बुरी तरह घायल हो चुके थे। इससे कुछ वक्त के लिए सिख सिपाहियों का मनोबल टूटता सा दिखा।

इसी बीच ‘जो बोले सो निहाल’ के नारे में उनके अंदर फिर से जोश भर दिया।

जब तक सांस थी लड़े वो

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गोलियां खत्म हो चुकी थी, इसलिए उन्होंने अपनी तलवारों से दुश्मन को मारना शुरू कर दिया। करीब तीन घंटे तक वह लगातार लड़ते रहे। मगर आखिर में वही हुआ, जिसका सबको अंदाज़ा था। सभी 21 सिख मारे गए।

भले ही सभी 21 सिख योद्धा शहादत को प्राप्त हो चुके थे।

किन्तु, मरने से पहले वे अफ़गानियों का बहुत नुक्सान कर चुके थे। अफगानी आगे बढ़ते इससे पहले अंग्रेजी सेना सारगढ़ी पहुंच गई और अफ़गानियों को वापस जाना पड़ा। मरणोपरांत सारगढ़ी में शौर्यगाथा लिखने वाले इन सभी  21 योद्धाओं को उस समय भारतीयों को दिए जाने वाले सबसे बड़े सम्मान से सम्मानित किया गया।

शहीद होने वाले इन सिपाहियों में ईशर सिंह, लाल सिंह, नायक चंदा सिंह, सुंदर सिंह, राम सिंह, उत्तर सिंह, साहिब सिंह, हीरा सिंह, दया सिंह, जीवन सिंह , भोला सिंह, नारायण सिंह, गुरमुख सिंह, जीवन सिंह, गुरमुख सिंह, राम सिंह, भगवान सिंह, बूटा सिंह, जीवन सिंह और नंद सिंह का नाम शामिल है।

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