अयोध्या में प्रभु श्रीराम का निवास है। यहां पर उनकी अराधना एक अलग ही अंदाज में वे बाल रूप में पूजे जाते हैं। वहीं, उनके विविध रूपों की भी पूजा होती है। भगवान श्रीराम के साथ-साथ यहां माता सीता भी अराधना के कई मंदिर हैं। ऐसा ही एक मंदिर है जुगल माधुरी कुंज। यहां माता सीता को सखी रूप में पूजा जाता है।
बदरीनाथ मंदिर के रावल की तर्ज पर परंपरा
यह परंपरा कुछ-कुछ बदरीनाथ मंदिर के रावल जैसी है, जो मंदिर के कपाट खुलते और बंद होते समय लक्ष्मी जी के विग्रह को छूने के लिए स्त्री वेश धारण करते हैं। हालांकि, वहां रावल को उस परंपरा के निर्वाह के लिए स्त्री बनना पड़ता है, जिसके तहत कोई पराया पुरुष किसी स्त्री को नहीं छू सकता। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि विवाह के बाद जब सीताजी अयोध्या आईं, तो उनके साथ उनकी आठ सखियां भी थीं। उन सखियों के नाम थे – चंद्रकला, प्रसाद, विमला, मदन कला, विश्व मोहिनी, उर्मिला, चंपाकला और रूपकला।
इस मंदिर में श्रीराम-सीता के साथ ये आठों सखियां भी विराजमान हैं। हालांकि, सखियां हर समय जुगल के साथ मौजूद नहीं होतीं। राम विवाह, रामनवमी और सावन पर दरबार लगता है सखियों का। इसके अलावा वे शयन कुंज में विश्राम करती हैं। राज बहादुर ने जिस अनोखी सखी परंपरा के बारे में बताया वह इसी विश्राम के वक्त की है।
1898 में हुआ था मंदिर का निर्माण
हवेलीनुमा मंदिर में जुगल के दर्शन के लिए करीब दो दर्जन सीढ़ियां तय करनी पड़ती हैं। यह मंदिर कितना पुराना है? इसके जवाब में यहां के प्रबंधक अभिषेक मिश्र इतिहास में ले चलते हैं। लखनऊ-सीतापुर रोड पर एक छोटी-सी रियासत पड़ती है, भीखमपुर। इसी रियासत की महारानी ने 1898 में वर्तमान मंदिर का निर्माण करवाया था। उसके पहले मंदिर था, लेकिन छोटा-सा। अभिषेक के मुताबिक रानी साहिबा इस मंदिर के पहले महंत मैथिलीशरण भक्त मालीजी महाराज की भक्त थीं। राज बहादुर उसी परंपरा में तीसरे महंत हैं।
इस मंदिर का कामकाज देखने के लिए एक ट्रस्ट है – कामद प्रताप देवराज रानी प्राइवेट धर्मादाय ट्रस्ट। यह मंदिर गृहस्थ गद्दी में आता है। यानी महंत को गृहस्थी बसाने की अनुमति है। मंदिर के सामने का इलाका कहलाता है नजरबाग। कभी यहां इमली के पेड़ हुआ करते थे। नाम को लेकर इतिहास यह बताया जाता है कि अयोध्या नरेश ने यह जमीन हनुमानगढ़ी के नाम नजर यानी दान दे दी थी।