पल भर के लिए अपनी आंखें बंद कीजिए और कल्पना कीजिए आप एक ऐसे इंसान हैं, जो किसी हादसे का शिकार हो गया है और कहीं ऐसी जगह पहुंच गया है, जहां आपका कोई अपना नहीं है. आपके पास न भूख मिटाने के लिए खाना है, और न ही वापसी की कोई उम्मीद. आपका दिमाग भी धीरे-धीरे काम करना बंद कर रहा है. अब अपनी आंखें खोलिए और भगवान का शुक्रिया अदा कीजिए कि यह आपकी कल्पना भर है.
मगर, क्या आप जानते हैं कि यह किसी इंसान की असली कहानी है. यह कहानी है एक निडर मछुआरे जोस सल्वाडोर अल्वारेंगा की. वहीं अल्वारेंगा, जो मछली पकड़ने के लिए समुद्र में उतरा तो, लेकिन उसे वापसी में पूरे 438 दिन लग गए.
17 नवंबर 2012. यह वह तारीख है, अल्वारेंगा मैक्सिको के एक गांव से निकला और गहरे समुद्र में मछली पकड़ने उतर गया. इस यात्रा में उसके साथ उसका एक साथी भी था. मछलियों पकड़ने में उसे अल्वारेंगा जितनी महारत हासिल नहीं थी. मगर वो खुद को निखार रहा था. अल्वारेंगा की योजना के हिसाब से उसकी यह यात्रा करीब एक दिन तक चलने वाली थी.
इस दौरान ब्लैक टिप शार्क और सेलफिश को पकड़ने का उसका प्लान था. सब कुछ योजना के अनुसार ही शुरू हुआ था. मगर तभी एक खतरनाक तूफान ने अपनी दस्तक दे दी. भारी बारिश और तेज हवाओं के कारण उसे खतरे की चेतावनी मिल चुकी थी. बावजूद इसके वो अपनी सिंगल इंजन वाली टॉपलेस बोट के सहारे आगे बढ़ता रहा. यह रिस्क उसे भारी पड़ा. 5 दिवसीय तूफान उसे अपने साथ बहा ले गया.
जिस रेडियो से वो मदद मांग सकता था. वो भी नष्ट हो चुका था. बोट का वजन कम करने के लिए अल्वारेंगा ने 500 किलोग्राम वजन के बराबर की अपनी सारी मछलियां फेंक दी.
अब उसके पास न तो खाने के लिए राशन था, न रोशनी थी, और न ही किनारे से संपर्क करने का कोई तरीका. खुले समुद्र में उसकी बोट बेलगाम आगे बढ़े जा रही थी. भूख लगने पर वो अपने नंगे हाथों से मछली, कछुए, जैसे समुद्री पक्षी पकड़ता और उनका मास कच्चा ही खा जाता.
पीने के लिए अल्वारेंगा ने बारिश के पानी का सहारा लिया. एक पल ऐसा भी आया, जब उसके पास पीने के लिए पानी नहीं बचा ऐसे में उसने कछुओं का खून और अपना मूत्र तक पिया. करीब 4 महीने के बाद साल्वाडोर के साथी ने कच्चे मांस को खाने से मना कर दिया और अंतत: भुखमरी से मर गया.
मगर, साल्वाडोर ने जिंदा रहने के लिए सबकुछ जारी रखा. साल्वाडोर अपने शुरुआती बिंदु से 10 हजार किलोमीटर से अधिक की दूरी पर था. खुद को भगवान के सहारे छोड़कर अल्वारेंगा ने खुद को अपनी बोट के सहारे सौंप दिया. वह खुली आंखों से आसमान में टिमटिमाते सितारों को देखता.
इस उम्मीद के साथ कि कोई उसकी मदद के लिए आएगा. उसने अपने आसपास कई सारे जहाजों की चहलकदमी महससू की. मगर कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया. इस अकेलेपन में अल्वारेंगा ने गीतों और भजनों को समय काटने का साधन बनाया.
30 जनवरी 2014 को, 438 नारकीय दिनों के बाद, अलवरेंगा ने कुछ दूरी पर पहाड़ों को देखा. यह मार्शल द्वीप समूह का एक छोटा सा कोना था. उसने अपनी नाव छोड़ी और तैरकर किनारे पर आ गया. आकिरकार वह जमीन पर था. किनारे पर पहुंचकर जैसे ही वो खड़े होने की कोशिश करता वो गिरकर बेहोश हो जाता. जल्दी ही वहां के स्थानीय लोगों की उस पर नज़र पड़ी और वो उसे अपने घर लेकर आए. इसके बाद उन्होंने संबंधित अधिकारियों को अल्वारेंगा के बारे में सूचना दी.
पुलिस जब मौके पर पहुंची तो उसने देखा कि अल्वारेंगा के टखने सूजे हुए थें. उसकी आंखों की रौशनी बहुत कम हो गई थी. वो मुश्किल से चल पा रहा था. उसके बाल किसी झाड़ी की तरह उलझ गए थे. लिहाजा, उन्होंने लगा कि साल्वाडोर अल्वारेंगा के साथ किसी ने बर्बरता की है.
जबकि, सच कुछ और था. आगे अल्वारेंगा की कहानी की सत्यता के लिए कई तरह की जांच की गई और हर जांच इस बात की तस्दीक करती है कि अल्वारेंगा की कहानी एकदम सही थी.
अल्वारेंगा जब वापस अपने परिवार के पास लौटा तो सभी की आंखें खुली की खुली रह गईं. सभी ने उसे मृत मान लिया था. सबसे ज्यादा खुशी अल्वारेंगा के माता-पिता और उसकी बच्ची को हुई. 14 साल की बेटी फातिमा अल्वारेंगा के जाने के बाद अपने नाना-नानी के साथ रहती थी. ये कहानी थी एक ऐसे आदमी की, जो 400 से भी ज़्यादा दिनों तक समुद्र में रहा और अपनी हिम्मत के बूते ज़िंदा वापस लौट कर आया.