मराठा साम्राज्य (Maratha Empire) के वीर पुरुषों की कहानियां हम बचपन से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं. भारत माता को विदेशी ताकतों के चंगुल से छुड़ाने के लिए इन वीर सपूतों न हंसते-हंसते प्राणों की आहुती दे दी थी. छत्रपति शिवाजी महाराज (Chhatrapati Shivaji Maharaj) हों, पेशवा बाजीराव (Pehswa Bajirao) हों या तानाजी मालुसरे (Tanhaji Malusare) के जीवन को हमने फ़िल्मों में भी देखा है. मराठा हों, मेवाड़ हो या दक्षिण का कोई राजवंश, वीरों की कहानियों से हमारे गीत, कविताएं, कहानियों की किताबें, इतिहास की किताबें भरी पड़ी हैं.
दुख की बात है कि इन किताबों में, हमारे गीतों में, फ़िल्मों में, नाटक में वीरांगनाओं को वो स्थान नहीं मिला जिनकी हो हक़दार थी. ग़ौरतलब है कि देश के लिए महिलाओं ने भी वक़्त-बेवक़्त तलवार उठाया है. मातृभूमि की रक्षा के लिए असंख्य वीरांगनाओं ने सर्वोच्च बलिदान दिया है लेकिन इतिहास में वो कहीं ग़ुम हो गई हैं. लोक गीत, लोक कथाओं के रूप में वे कहीं न कहीं आज भी हमारे बीच हैं लेकिन उन्हें वो स्थान प्राप्त नही है. अगर आस-पास सवाल किया जाए तो लोग वीरों की गिनती करते नहीं थकेंगे लेकिन वीरांगनाओं के नाम शायद ही बता पाएं. बेहद ज़रूरी है कि हम उन औरतों को याद करें, उनके बारे में बात करें, पढ़े जिन्होंने हमारे देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. आज हम ऐसी ही एक वीरांगना की कहानी लेकर आए हैं मराठाओं की बागडोर तब संभाली जब ये दुश्मन के हाथों में जाने ही वाली थी. उस महान नारी ने सालों तक मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से मराठा साम्राज्य को बचाए रखा, वो वीरांगना थीं रानी ताराबाई भोंसले (Rani Tarabai Bhonsle)
मराठा साम्राज्य को पतन से बचाया
छत्रपति शिवाजी महाराज की पुत्रवधू थीं रानी ताराबाई. मराठा वंश के वीर योद्धाओं की आड़ में वीरांगनाओं की चमक पर धूल पड़ गई है और अब वो धूल हटाना ज़रूरी है. ताराबाई ने मराठा साम्राज्य को पतन से बचाया. पुर्तगाली उस महिला को ‘rainha dos Marathas’ या मराठाओं की रानी कहकर बुलाते थे. विदेशी भी जिसका नाम इज्ज़त से लेते हों उस महिला का ओहदा क्या रहा होगा, ये सोचने की बात है!
भारत की मिट्टी पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, गुजरात की नायकी देवी, शिवगंगई की रानी वेलू नचियार जैसी कई बहादुर स्त्रियों ने जन्म लिया और रानी ताराबाई भी उन्हीं में से एक हैं.
कौन थीं रानी ताराबाई?
रानी ताराबाई का जन्म 1675 में हुआ. Live History India के लेख के अनुसार, वे छत्रपति शिवाजी महाराज के सर सेनापति हंबीरराव मोहिते की पुत्री थीं. 8 साल की छोटी सी उम्र में ही ताराबाई का विवाह, छत्रपति शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम से कर दिया गया. मराठा साम्राज्य पर उस समय मगु़ल शासक औरंगज़ेब की नज़र थी. दक्षिण पर आधिपत्य को लेकर मराठाओं और मुग़लों के बीच संघर्ष चल रहा था. औरंगज़ेब पूरे हिन्दुस्तान पर मुग़लिया परचम फैलाना चाहता था और मराठा अपने वतन की रक्षा कर रहे थे.
ताराबाई ने मराठाओं का उत्थान और पतन दोनों देखा
1674 में शिवाजी मराठा साम्राज्य के छत्रपति बने और उनकी छत्रछाया में मराठा और शक्तिशाली बन गए. 1680 में उनकी मौत हो गई और मराठाओं की मुश्किलें बढ़ने लगी. शिवाजी के बाद उनके बड़े बेटे, शंभाजी ने मराठाओं की बागडोर संभाली लेकिन मराठाओं के अस्तित्व पर संकट बना रहा. 1689 में औरंगज़ेब, 15000 सिपाहियों के साथ रायगढ़ का किला जीतने में कामयाब हो गया. शंभाजी और शिवाजी की पहली पत्नी साईबाई की हत्या कर दी गई. शंभाजी की पत्नी येसुबाई और उनके बेटे शाहू को बंदी बनाकर मुगल दरबार ले जाया गया.
रायगढ़ किले से बच निकले ताराबाई और राजाराम
रायगढ़ के युद्ध में राजाराम और ताराबाई सकुशल बच निकले. राजाराम और ताराबाई जिंजी किले पहुंचे. ये स्थान अभी तमिलनाडु में है. मराठाओं की मुश्किलें ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. जिंजी मराठा साम्राज्य का दक्षिण में आखिरी किला था. ताराबाई और उनके पति के लिए ये सबसे सुरक्षित स्थान था. मुग़लों की पैनी नज़र से वे ज़्यादा दिनों तक नहीं बच पाए. मुग़ल सेनापति, ज़ुल्फ़िकर अली खान ने 8 सालों तक जिंजी किले पर कब्ज़ा करने की कोशिश की.
8 वर्षों तक मुग़लों से मराठा साम्राज्य को बचाकर रखा
मुग़ल सेनापति, ज़ुल्फ़िकर अली खान सितंबर 1690 से जनवरी 1698 तक जिंजी पर कब्ज़ा करने की कोशिश करता रहा. इस बीत राजाराम की तबीयत बिगड़ती चली गई. ऐसे में ताराबाई ने शासन की बागडोर संभाली. न सिर्फ़ उन्होंने किले को बचाकर रखा बल्कि उन्होंने मुगलों को खदेड़कर मराठा भूमि से भगाने के आदेश भी दिए. रानी ताराबाई का साथ दिए दो विश्वासपात्र और वीर मराठाओं ने- संताजी घोरपडे और धानाजी जाधव. इनकी वीरता आज भी लोक कथाओं मे गूंजती है.
पति के मौत के बाद मराठा साम्राज्य की बागडोर संभाली
लंबी बीमारी के बाद 1700 में ताराबाई के पति, राजाराम का देहांत हो गया. इसके बाद मराठाओं की बागडोर ताराबाई ने अपने हाथ में ली. मुग़ल बादशाह, औरंगज़ेब इस खबर से फूला न समाया. उसे लगा कि एक महिला और उसके बच्चे को वो आसानी से पराजित कर देगा लेकिन नियती को कुछ और ही मंज़ूर था. पति की मौत का दुख भूलाकार ताराबाई, औरंगज़ेब का सामना करने के लिए तैयारियां करने लगीं. ताराबाई न सिर्फ़ युद्धनीति में बल्कि अस्त्र-शस्त्र चलाने में भी निपुण थीं. वो कई बार सेना में सबसे आगे खड़ी हुईं और दुश्मन पर काल बनकर टूट पड़ीं.
मुगलों के इलाके से कर संग्रह किया
ताराबाई ने गुरिल्ला युद्ध का भरपूर प्रयोग करके दुश्मनों के दांत खट्टे किए. उनकी एक बात जो उन्हें हर नेता, योद्धा से अलग बनाती है वो है उनकी सीखने की ललक. उन्होंने मुग़ल बादशाह, औरंगज़ेब से भी एक कामगार पाठ सीखा. मुग़ल बादशाह दुश्मन सेना के सेनापतियों को घुस देता था और ताराबाई ने भी दुश्मन के खेमे में घुसने के लिए यही हथकंडा अपनाया. ताराबाई और उनके सेनापति मुग़लों के साम्राज्य में घुसकर अपने टैक्स कलेक्टर नियुक्त करने लगे. सोचकर देखिए, ताराबाई का किला मुग़लों के अधीन था और वो मुग़लों के इलाके से ही कर जोड़कर, मराठा धन में बढ़ोतरी कर रही थीं.
शाहुजी के हाथों में मराठा बागडोर
औरंगज़ेब अपने जीतेजी मराठा साम्राज्य को मुगल साम्राज्य में नहीं मिला पाया. 2 मार्च, 1707 को उसकी मौत हो गई. मुग़लों ने बड़ी होशियारी से शाहुजी (संभाजी के बेटे) को रिहा किया ताकी मराठा गद्दी पर शीतयुद्ध शुरु हो जाए. शाहुजी ने ताराबाई को मराठा गद्दी के लिए ललकारा. शाहुजी मुगलों के पास पले-बढ़े थे और इस वजह से ताराबाई मराठाओं की बागडोर उनके हाथों में नहीं देना चाहती थीं. जल्द ही ये मतभेद युद्धभूमि तक पहुंच गया. कानूनी तौर पर शाहूजी ही छत्रपति बनते और हुआ भी यही. 1708 में शाहूजी गद्दी पर बैठे.
कोल्हापुर साम्राज्य की स्थापना
अलग-अलग लेखों में ताराबाई को अलग तरह से दिखाया है. इस बात से इंकार करना नामुमकिन है कि ताराबाई की कुशल रणनीतियों की बदौलत ही पतन के गर्त में गिरते मराठा वापस खड़े हो पाए. ताराबाई को दिवंगत छत्रपति संभाजी के बेटे शाहूजी के साथ उत्तराधिकार का युद्ध लड़ना पड़ा. साहूजी ने उन्हें पन्हाला में शरण लेने पर विवश किया. रानी ताराबाई ने यहां से कोल्हापुर साम्राज्य की स्थापना की.
ताराबाई ने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे लेकिन उनकी निगरानी मे मराठा सूरज पर ग्रहण नहीं लगा. 1761 में उन्होंने 86 की उम्र में आखिरी सांस ली. अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठाओं को बुरी तरह हराया. ये कहना गलत नहीं होगा कि अगर ताराबाई न होतीं. विदेशी मराठाओं पर इससे काफ़ी पहले कब्ज़ा कर लेते.