भंवरलाल आर्य: गरीबी में बचपन बीता, पेट के लिए मज़दूरी तक करनी पड़ी, आज करोड़ों के मालिक हैं!

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जिंदगी में कई ऐसे मौके आते हैं, जब इंसान को लगता है कि सब खत्म हो गया है. हमें समझ नहीं आता कि अब आगे कैसे बढ़ा जाए. ऐसे समय में कुछ लोगों की कहानियां हमें प्रेरित करती हैं और आगे बढ़ने का हौसला देती हैं. कुछ ऐसी ही कहानी राजस्थान के भंवरलाल आर्य की है, जिन्होंने जिंदगी का वो दौर देखा है जिसकी शायद हम और आप कल्पना भी नहीं कर सकते. बचपन के दिनों में भंवरलाल के घर में गरीबी और आर्थिक तंगी का माहौल इतना अधिक था कि उन्हें मज़दूरी तक करनी पड़ी. मगर उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी मेहनत से खुद का भाग्य बदल दिया. आज वो न सिर्फ करोड़पति हैं, बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा भी हैं.

पतंजलि विश्वविद्यालय हरिद्वार में शोधार्थी, ‘सोमवीर आर्या’ ने भंवरलाल के जीवन पर अलग-अलग स्रोतों से जानकारी संकलित की है. उसके आधार पर उन्होंने इंडियाटाइम्स हिन्दी से बातचीत की और भंवरलाल के पूरे सफ़र के बारे में बताया.

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12 साल की उम्र में मज़दूरी कर अपना पेट पाला!

सोमवीर बताते हैं कि 1 जून 1969 को राजस्थान के कल्याणपुर तहसील के बगाणियों की ढाणी में पैदा हुए भंवरलाल ने एक गरीब परिवार में अपनी आंखें खोली थीं. उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. पिता राणाराम मुंडण और मां राजोदेवी को पीने का पानी भी 6-7 किलोमीटर दूर से लाना पड़ता था.

माता-पिता चाहते थे कि उनके बच्चे को तकलीफ न हो. इसलिए उन्होंने भंवरलाल को लालन-पालन के उनके नानी के घर भेज दिया, जहां से उन्होंने 5वीं तक पढ़ाई की. 12 वर्ष की आयु आते-आते भंवरलाल के हालात इतने बुरे हो गए थे कि उनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल होने लगा था.

परिणाम स्वरूप छोटी उम्र में ही उन्होंने काम के लिए हाथ-पैर मारना शुरू कर दिया था. आसपास काम न मिलने के कारण उन्होंने मुंबई, कोलकाता, बैंगलोर जैसे तमाम बड़े शहरों रुख किया. इस दौरान उन्हें अपना पेट पालने के लिए मज़दूरी तक करनी पड़ी. 12 साल की उम्र में भंवरलाल के लिए मज़दूरी करना बहुत मुश्किल भरा था. मगर, परिवार की आर्थिक स्थिति के सामने वो बेबस थे

भंवरलाल अपने काम के प्रति बहुत ईमानदार थे. इसका फायदा उन्हें आगे मिला. कर्नाटक के एक सेठ ने उन्हें अपनी दुकान में रख लिया. शुरुआत में उन्हें उनका मालिक रहना, खाना और कपड़ा ही देता था. बाद में वो उन्हें 50 रुपए सैलरी के रूप में भी देने लगा. कहते हैं कि यह दुकान ही थी, जिसने भंवरलाल की जिंदगी बदलकर रख थी.

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30 हजार रुपए से शुरू किया था कपड़े का व्यापार

दरअसल, इस दुकान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों का आना-जाना था. उनके कहने पर भंवरलाल ने संघ की शाखाओं में जाना शुरू कर दिया था. बाद में उन्हें संघ की शाखाओं से इतना लगाव हो गया कि इसके लिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी. मालिक उन्हें 22 दिनों के शिविर में जाने की छुट्टी नहीं दे रहा था. सोमवीर के अनुसार भंवरलाल बताते हैं कि संघ के शिविर में क्रांतिकारियों के जीवन प्रसंगों ने उन्हें प्रभावित किया.

भगत सिंह के बलिदान ने उनके मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा. इस शिविर के बाद भंवरलाल ने कई अन्य नौकरियां की और लगातार आगे बढ़ते रहे. कई वर्षों के संघर्ष के बाद उन्होंने तय किया कि वो अपनी खुद का काम करेंगे. इसी सोच के साथ उन्होंने 30 हजार रुपए से कपड़े का व्यापार शुरु किया और खुद को पूरी तरह से इसके लिए समर्पित कर दिया. जल्द मेहनत रंग लाई.

महज़ एक साल के भीतर भंवरलाल एक लाख रुपए तक का मुनाफा कमाने में सफल रहे. आगे 1990 में उन्होंने एक दुकान खरीदी और अपने छोटे भाई के साथ मिलकर ‘जनता टेक्सटाइल’ की नींव डाल दी. फिर वो दिन आया, जिसका भंवरलाल को दशकों से इंतजार था. अब इलाके में वो मशहूर हो चुके थे. इतने मशहूर वो अपने क्षेत्र के व्यापारी संघ के अध्यक्ष चुने गए.

2001 में भंवरलाल आर्य राजीव दीक्षित के ‘आजादी बचाओ आंदोलन’ का हिस्सा भी बने. उनके नाम स्कूल निर्माण, मंदिर निर्माण, अस्पताल, जैसे कई समाजिक कार्य दर्ज हैं. दौड़ भाग भरी इस जिंदगी में भंवरलाल कब क्रोनिक अस्थमा का शिकार हो गए. उन्हें पता ही नहीं चला. तमाम तरह के इलाज के बाद उन्हें फायदा नहीं मिला तो उन्हें योग का रास्ता चुना. योग से उन्हें लाभ मिला तो उन्हें आगे का जीवन योग के नाम कर दिया.

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‘जनता टेक्सटाइल’ का टर्न ओवर 100 करोड़ से अधिक है

अलग-अलग मंचों पर वो योग गुरू बाबा रामदेव के साथ नज़र आ चुके हैं. वहीं उनकी ”जनता टेक्सटाइल” तरक्की पर है और वो देश के करोड़पतियों में शुमार हैं. उनकी जनता टेक्सटाइल का वार्षिक टर्न ओवर 100 करोड़ से भी अधिक हो चुका है. अपने सामाजिक कार्यों के लिए भंवरलाल कर्नाटक राज्य उत्सव, संस्कार भारती से योग रत्न, जैसे कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किए जा चुके हैं.

जहां गांवों में लाईट नहीं, पानी नहीं, जहां लोगों के लिए दो वक्त का भोजन जुटाना भी बड़ी उपलब्धि हो. वहां से निकलकर अपने परिवार और साथ काम करने वाले लोगों को ऊंचाईयों की बुलंदियों पर ले जाना बड़ी बात है. यही कारण है कि भंवरलाल की कहानी समाज के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं है. उनकी कहानी बताती है कि दृढ़ संकल्प, साफ नियत और कड़ी मेहनत से जीवन में कुछ भी हासिल किया जा सकता है.