जो कभी नहीं हुआ उस हर बात की शुरुआत किसी ना किसी को करनी ही होती है. यही पहला शख्स पीछे चले आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शक बनता है. ठीक उसी तरह जिस तरह एक आदिवासी लड़की ने अपने राज्य के उस चलन को तोड़ दिया जिसके लिए कहा जाता था कि यहां के आदिवासी किसी आधिकारिक पद तक नहीं पहुंच सकते. आइए जानते हैं उस कठिनाइयों के बारे में जो इस आदिवासी लड़की के रास्ते में अड़चनें पैदा करने आईं लेकिन इसकी हिम्मत से टकरा कर चूर चूर हो गईं :
कौन है ये लड़की
केरल के वायनाड के छोटे से गांव की लड़की, जिसका नाम है श्रीधन्या सुरेश. श्रीधन्या ने अपनी मेहनत के दम पर इतिहास रचा और बन गई केरल की पहली आदिवासी आईएएस ऑफिसर. श्रीधन्या वायनाड के पोज़ुथाना गांव से आती हैं. इनका संबंध यहां की कुरिचिया जनजाति से है. यह बात हम सभी जानते हैं कि आदिवासियों का जीवन किन अभावों में बीतता है. श्रीधन्या का बचपन भी कुछ ऐसे ही बीता. उनके माता-पिता मानरेगा में मजदूरी करते थे. मजदूरी के अलावा थोड़े और पैसे जुटाने के लिए इनके पिता वही काम करते थे जिसके दम पर यहां के आदिवासियों का घर चलता है. वह टोकरियां और तीर धनुष बना कर बेचा करते थे.
आर्थिक तंगी में भी बेटी को पढ़ाया
श्रीधन्या के पिता खुद एक मजदूर रहे, कभी पढ़ाई लिखाई से नाता ना जुड़ पाया, इसके बावजूद वह चाहते थे कि उनकी बेटी खूब पढ़े. यही वजह रही कि इस गरीबी और पैसों की तंगी के बावजूद श्रीधन्या के माता पिता ने उनकी पढ़ाई में कोई कमी नहीं रखी. अपने ही गांव से प्राथमिक शिक्षा करने के बाद श्रीधन्या ने कोझीकोड के सेंट जोसफ कॉलेज से जूलॉजी विषय में ग्रेजुएशन तथा पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. वह हमेशा से कुछ ऐसा करना चाहती थीं जिससे वह अपने समुदाय के लोगों की दशा सुधार सकें लेकिन फिलहाल उन्हें ऐसा कोई रास्ता नहीं दिख रहा था इसीलिए उन्होंने केरल के अनुसूचित जनजाति विकास विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली. बाद में श्रीधन्या ने वायनाड के एक आदिवासी हॉस्टल में वार्डन के तौर पर भी काम किया.
कलेक्टर की सलाह से मिला जीवन का लक्ष्य
आदिवासी इलाके के बच्चों के लिए सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि उन्हें कोई मार्गदर्शक नहीं मिलता. जिन सफलताओं को वे आसानी से अर्जित कर सकते हैं उसके बारे में भी कोई उन्हें बताने वाला नहीं होता. लेकिन श्रीधन्या खुशकिस्मत थीं जो उन्हें कोई ऐसा मिला जिसने बताया कि उसे आगे क्या करना चाहिए. हॉस्पिटल में काम करते हुए उनकी मुलाक़ात श्रीराम समाशिव राव से हुई थी. श्रीराम उन दिनों वायनाड के कलेक्टर थे. उन्होंने श्रीधन्या को उनके जीवन का लक्ष्य बताया और यूपीएससी की तैयारी तथा परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया.
श्रीधन्या ने 21 साल की उम्र में यूपीएससी की तैयारी शुरू कर दी थी तथा 22 साल की उम्र में उन्होंने इसकी पहली परीक्षा दी. एक आदिवासी लड़की के लिए यूपीएससी की परीक्षा देने के बारे में सोचना ही किसी सपने जैसा था, ऐसे में वह भला कैसे पहले ही प्रयास में इसे पास कर पातीं. वह पहले प्रयास में इसे क्लियर नहीं कर पाईं. उन्होंने और मेहनत की लेकिन दूसरे प्रयास में भी सफलता उनके हाथ नहीं लगी. दो असफलताओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और डटी रहीं. इसका नतीजा ये निकला कि उन्होंने 2019 में ऑल इंडिया 410वें रैंक के साथ यह परीक्षा पास कर ली. इसके साथ ही उन्होंने इतिहास रच दिया और केरल से पहली आदिवासी आईएएस ऑफिसर के रूप में जानी गईं.
कठिनाइयां अभी और भी थीं
केवल यूपीएससी पास करने से उनकी कठिनाइयां दूर नहीं हुई थीं. किस्मत की एक और परीक्षा बाकी थी. परीक्षा पास करने के बाद अभी उन्हें इंटरव्यू देना था. इसके लिए उन्हें दिल्ली जाना था और दिल्ली जाने के पैसे उनके पास थे नहीं. इस मुश्किल घड़ी में उनका साथ दिया उनके दोस्तों ने. उन्होंने सभी दोस्तों से पैसे इकट्ठे किए तब जा कर इंटरव्यू के लिए दिल्ली जा पाईं. अपने एक साक्षात्कार में श्रीधन्या ने कहा था कि ‘मैं राज्य के सबसे पिछड़े जिले से हूं. यहां पर आदिवासी जनजाति काफी संख्या में है, लेकिन अभी तक कोई आदिवासी IAS ऑफिसर नहीं बना. वायनाड से UPSC की तैयारी करने वालों की संख्या वैसे भी कम ही है. मुझे उम्मीद है कि मेरे सेलेक्शन से और भी लोगों को मेहनत करने और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी.
अपने निर्माणाधीन घर में दिया था इंटरव्यू
श्रीधन्या के पिता को सरकार की तरफ से घर बनाने के लिए थोड़ी सी जमीन मिली थी. उन्होंने घर भी बनाया लेकिन पैसों की कमी के कारण उनका घर पूरा ना हो सका. आईएएस बनने से पहले श्रीधन्या इसी निर्माणाधीन घर में रहती थीं. जब उनके आईएएस बनने की खबर फैली तो उनके घर मीडिया की भिड़ जमा हो गई. उन्होंने दुनिया को अपने संघर्ष और सफलता की कहानी इसी निर्माणाधीन घर में बैठ कर सुनाई थी.