आपने बिल्ली देखी होगी? आपकी आहट पा कर ही वो भाग निकलती है! नहीं…नहीं…वो डरपोक नहीं होती और अगर आपको लगता है कि बिल्ली डरपोक होती है तो किसी दिन उसके बच्चों को उससे छीनने का प्रयास कर के देखिएगा. वो क्या है, इसकी गवाही आपके जिस्म पर पड़े उसके पंजों के निशान देंगे. उसकी गुर्राहट शेरनी से कम ना लगेगी आपको. वो बिल्ली ही रहेगी बस परिस्थियां उसे शेरनी के बराबर बना देंगी. इंसान जब भी कुछ अलग करता है, तब कारण यही परिस्थियां ही होती हैं. इन्ही परिस्थितियों ने एक प्यारी सी बच्ची अहिल्या को रानी अहिल्याबाई होल्कर बना दिया था. जो नारियों की प्रेरणास्रोत बनी.
अहिल्या से ‘अहिल्याबाई होलकर’ बनना आसान न था
31 मई 1725 को चांऊडी गांव (चांदवड़), अहमदनगर, महाराष्ट्र में जन्मी अहिल्या अपने गांव के सम्मानित मन्कोजी शिंदे की सुपुत्री थीं. अहिल्या के विषय में खास बात ये है कि उनका संबंध किसी राज घराने से नहीं रहा. अपने संस्कारी पिता की संस्कारी बेटी दिखने में जितनी सुन्दर थीं उतनी ही गुणी भी थीं. प्यारी सी अहिल्या को ये आभास भी नहीं था कि एक दिन उसके हाथों में किसी राज्य की सत्ता आएगी और वो कोमल सी लड़की बहादुरी से अपने दायित्व का निर्वाह करेगी. ये वो दौर था जब औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल अपने पतन की ओर बढ़ रहे थे और मराठा अपने साम्रज्य का विस्तार करने में जुटे हुए थे.
मराठों की शक्ति में जिन सेनापतियों की अहम भूमिका थी, उन्हीं में से एक थे मल्हार राव होलकर. पेशवा बाजीराव ने मल्हार राव होलकर को मालवा की जागीर सौंपी थी और इसके बाद मल्हार राव ने अपने बाहुबल से अपने राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी उन्होंने इंदौर को बनाया. सब कुछ सही था मल्हार राव को चिंता थी तो सिर्फ अपने एकलौते बेटे खंडेराव की. उनका बेटा उनकी तरह पराक्रमी नहीं था. वे चाहते थे कि पराक्रमी न सही किंतु खंडेराव कम से कम इतना योग्य तो हो कि राज्य की सेवा कर सके. मल्हार राव चाहते थे कि उनकी जो पुत्र वधु हो, वो गुणी हो. जिससे वो राजपाट संभालने में उनके बेटे की मदद कर सके.
इसी सोच के साथ वो अपने लिए एक योग्य पुत्रवधू ढूंढ रहे थे. इसी दौरान एक बार वो कहीं से लौट रहे थे. लौटने में थोड़ी शाम हो गयी तो वो पास के गांव चांऊडी में रुक गए. यहीं उन्होंने शाम की आरती के वक्त मंदिर में एक बच्ची का भजन सुना. बच्ची की आवाज इतनी मधुर थी कि वो मन्त्रमुग्ध हो गए. उन्होंने बिना देर किए एक गांव वाले से पूछ कि ये बच्ची कौन है जो गा रही है. गांव वाला समझ गया कि ये महाशय बाहरी हैं इसीलिए हमारी अहिल्या को नहीं जान रहे. उसने मल्हार राव को बताया कि ये अहिल्या है हमारे मन्कोजी शिंदे की सुपुत्री. इतना सुनते ही मल्हार राव ने उससे आग्रह क्या कि वो उन्हें मन्कोजी शिंदे के पास ले चले.
जब युद्ध में खंडेराव होलकर वीरगति को प्राप्त हो गए
मन्कोजी शिंदे के पास पहुँचने पर मन्कोजी ने कहा कि वे उन्हें नहीं पहचान रहे, कृपया अपना परिचय दें. जब मल्हार राव ने अपना परिचय दिया तो मन्कोजी खुश होते हुए बोले कि आपको कौन नहीं जानता. आपके वीरता के चर्चे तो हर तरफ फैले हैं. मन्कोजी ने आग्रह किया कि वो आज की रात उनके यहाँ रुकें तथा उन्हें सेवा का मौका दें. मल्हार राव ने उनका आग्रह मान लिया. वे अहिल्या को गौर से देखते रहे. अहिल्या की सुन्दरता और उसके संस्कारों ने मल्हार राव को इतना मोह लिया कि वो उसे मन ही मन अपनी पुत्रवधू मान बैठे. रात्रि भोजन के समय राव ने मन्कोजी शिंदे के सामने अपने पुत्र से अहिल्या के विवाह का प्रस्ताव रखा.
मन्कोजी शिंदे को और भला क्या चाहिए था, वो झट से मान गए. इस तरह अहिल्या मल्हार राव की पुत्रवधू और खानेरव की पत्नी बन गयीं. इस तरह अहिल्या होलकर परिवार की बहू बनीं. अहिल्या ने ससुराल पहुंच कर जल्द ही अपने व्यवहार से सभी का दिल जीत लिया. सास की देखरेख में उन्होंने तेजी से घर की जिम्मेदारी संभाल ली और ससुर के सहयोग से वह राजकाज के काम देखने लगी. इस बीच वह एक बेटे और एक बेटी की मां भी बनीं. पति व्यवहार से ठीक नहीं थे, जिस कारण उन्हें शुरुआत में परेशानी का सामना करना पड़ा. लेकिन अहिल्या अपने स्नेह और सूझ बूझ से जल्द ही पति को भरोसे में लेने में कामयाब रहीं.
अब पति भी राज्य का कामकाज देखने लगे थे. सबकुछ सही चल रहा था कि तभी अहिल्या को महारानी अहिल्या बाई होल्कर बनने के लिए नियती द्वारा ली गयी पहली परीक्षा का सामना करना पड़ा. अचानक हुए एक युद्ध में खंडेराव होलकर वीरगति को प्राप्त हो गए. अहिल्या इस सदमे को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थीं. और बिना ये जाने कि नियति ने उसके लिए आगे क्या सोच रखा है पति की चिता के साथ सती होने का पूरा मन बना लिया. ये उन दिनों की परम्परा थी. किन्तु, मल्हार राव जानते थे कि अहिल्या में वो काबलियत है कि वो उनका बेटा बन कर कार्यभार संभाल सकती है.
पति के बाद अहिल्या के ससुर मल्हार राव भी चल बसे
इसी कारण उन्होंने अहिल्या को समझाते हुए कहा कि अब तुम ही हमारा पुत्र हो. यदि तुम भी चली गयी तो हमें कौन संभालेगा. इस बूढ़े बाप के बारे में सोचो और सती होने की बात मन से निकाल दो. पिता समान ससुर को आसुंओं में भीगा देखकर अहिल्या का मन पसीज गया और उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर उनकी बात मान ली. पति के अचानक चले जाने से आहात अहिल्या ने किसी तरह खुद को संभाला और राज्य के काम काज में मल्हार राव का हाथ बांटने लगी लेकिन उसे क्या पता था कि और परीक्षाएं अभी बाकी हैं. होल्कर राज्य का तेजी से विकास हो रहा था कि इसी बीच अहिल्या को एक और बड़ा झटका लगा.
उनके ससुर मल्हार राव होल्कर भी चल बसे. मल्हार राव की मृत्यु के बाद सारे राज्य की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी. उन्हें जल्द ही राज्य के लिए कोई बड़ा फैसला लेना था. इसी कड़ी में अहिल्या ने अपने पुत्र मालेराव को यह कहते हुए राजगद्दी सौंपी कि उसे अपने दादा की तरह विवेक से राज्य को चलाना है. लेकिन अभी आखरी और सबसे बड़ी परीक्षा बाकी थी. राजतिलक के कुछ दिनों बाद ही उनका बेटा मालेराव गंभीर रूप से बीमार पड़ा और फिर हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह गया. मात्र 22 वर्षीय बेटे की मृत्यु ने अहिल्या को अंदर तक झकझोर दिया.
हालांकि, उन्होंने खुद को टूटने नहीं दिया. वो एक बेटे के लिए सारी प्रजा को अनाथ नहीं करना चाहती थीं. राज्य का पतन न हो जाये, इसलिए वह गंभीर होकर राज काज में लग गईं. चूंकि होल्कर परिवार के पास अब कोई भी पुरुष राजा न था, इसलिए राज्य के ही एक कर्मचारी ने दूसरे राज्य के राजा राघोवा को पत्र लिखकर होल्कर पर कब्जा करने का न्यौता दे डाला. लेकिन जल्द ही अहिल्या को इसका पता चल गया. इसके बाद अहिल्या ने खुद राजगद्दी संभाली और अहिल्या से महारानी अहिल्याबाई होल्कर बन गयीं. अहिल्याबाई को उनके सेनापति तुकोजो राव का पूरा सहयोग मिला.
अहिल्या ने अपने नेतृत्व में एक महिला सेना बनाई
आसपास के राज्यों में इस बात की सूचना दी गई. यहां तक कि पेशवा बाजीराव को भी इस बात की जानकारी दी गई. सभी अहिल्या के इस कदम से खुश थे और उन्होंने उनकी मदद करने का आश्वासन भी दिया. सभी का साथ पाकर अहिल्या ने राज्य की मजबूती के लिए रसद और अस्त्र शस्त्र इक्कट्ठे करने शुरु कर दिए. साथ ही उन्होंने अपने नेतृत्व में एक महिला सेना बनाई. इन महिलाओं को सभी प्रशिक्षण दिए गये और युद्ध कौशल भी सिखाए गए. अहिल्याबाई की युद्ध की तैयारियों को देख कर रघुनाथराव घबरा गया. वो समझ गया कि जिस अहिल्या को वो सुकुमार समझ रहा था वो शेरनी है.
उसे आभास हो चुका था कि अगर युद्ध हुआ तो उसे लेने के देने पड़ सकते हैं. वो जानता था उनके पास तुकोजी राव जैसा कुशल सेनापति भी है, जिसने होल्कर के लिए कई युद्ध जीते हैं. इसके बाद अहिल्या की यशकीर्ति दूर-दूर तक फैल गई. उनकी वीरता के चर्चे होने लगे, लेकिन उनका ध्यान राज्य के विकास से तनिक भी नहीं हटा. भारतीय संस्कृति में महिलाओं को दुर्गा और चण्डी के रूप में दर्शाया गया है. ठीक इसी तरह अहिल्याबाई ने स्त्रियों को उनका उचित स्थान दिया. अहिल्याबाई ने स्त्रियों को उनका उचित स्थान दिया अहिल्या ने नारीशक्ति का भरपूर उपयोग किया.
उन्होंने यह बता दिया कि स्त्री किसी भी स्थिति में पुरुष से कम नहीं है. वे स्वयं भी पति के साथ रणक्षेत्र में जाया करती थीं. पति के देहान्त के बाद भी वे युद्ध क्षेत्र में उतरती थीं और सेनाओं का नेतृत्व करती थीं. अपने शासनकाल में उन्होंने नदियों पर जो घाट स्नान आदि के लिए बनवाए थे, उनमें महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था भी हुआ करती थी. स्त्रियों के मान-सम्मान का बड़ा ध्यान रखा जाता था. लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने का जो घरों में थोड़ा-सा चलन था, उसे विस्तार दिया गया. दान-दक्षिणा देने में महिलाओं का वे विशेष ध्यान रखती कहते हैं कि अहिल्या के घर के दरवाजे दीन दुखियों के लिए हमेशा खुले रहते थे.
वह सब के लिए मां थीं. इसलिए जब 1795 में उनका निधन हुआ तो चारों तरफ शोक फैल गया. सब इस तरह फूट-फूट कर रो रहे थे. अहिल्याबाई के निधन के बाद तुकोजी ने इंदौर की गद्दी संभाली. अहिल्याबाई हमेशा नारी जगत के लिए प्रेरणास्रोत रही हैं. उन्होंने न सिर्फ पति और ससुर के देहांत के बाद अपने राज्य की गद्दी संभाली, बल्कि एक ऐसे शासन का उदाहरण पेश किया, जो हर दौर के लिए एक आदर्श बन सकता है. उन्होंने अपने शासन काल में हमेशा लाभ-हानि को दरकिनार करते हुए समाज और अपनी प्रजा की जरुरतों को समझा. यही कारण है कि वह नई उम्मीद बनकर उभरीं और लोगों ने उन्हें ‘देवी’ माना.